होटल की रिसेप्शन पर इच्छाओं के राजा: जब मेहमान की पसंद टकराई हकीकत से

सामाजिक सभा में दो मेहमानों के बीच जीवंत बातचीत का एनीमे चित्रण, विविध संचार शैलियों को व्यक्त करता है।
इस जीवंत एनीमे दृश्य में, हम सभा में बातचीत की विपरीत गतिशीलताओं का अन्वेषण करते हैं—कुछ मेहमान अपने विचार खुलकर साझा करते हैं जबकि अन्य संकोच करते हैं, जिससे बातचीत का एक अनोखा ताना-बाना बनता है।

होटल की रिसेप्शन डेस्क पर काम करना, मानो हर दिन नयी फिल्म का पहला शो देखने जैसा है। कभी-कभी तो लगता है जैसे मेहमानों से बात निकलवाने के लिए उनकी ज़बान खींचनी पड़े, और कभी ऐसे लोग आ जाते हैं जो बिना ब्रेक के अपनी फरमाइशों की गंगा बहा देते हैं। आज की कहानी है ऐसे ही एक 'खास' मेहमान की, जिनका नाम हम रखेंगे—मिस्टर विश। क्यों? क्योंकि साहब की तो हर बात में 'मुझे ये चाहिए', 'वो चाहिए', 'ऐसे चाहिए' चलता ही रहा।

अब हुआ यूँ कि एक शाम मिस्टर विश बड़े ठाठ से होटल में दाखिल हुए। मैंने मुस्कराते हुए स्वागत किया, "नमस्ते सर, कैसे मदद करूँ?" अब हमारे यहाँ तो आम तौर पर लोग पहले हालचाल पूछते हैं, लेकिन मिस्टर विश तो सीधे मुद्दे पर—"हाँ, Pine है क्या?" (यहाँ Pine हमारे एक सहकर्मी का छद्म नाम है)। मैं थोड़ी देर को तो चौंक गया, इतनी सीधी शुरुआत! मैंने बताया, "नहीं सर, आज Pine नहीं हैं।" फौरन सवाल—"कल आएँगे?" मैंने भी उतनी ही शांति से जवाब दिया, "मुझे जानकारी नहीं है।"

यहाँ एक बात बताना ज़रूरी है—हमारे यहाँ जब कोई मेहमान किसी स्टाफ का नाम लेकर पूछता है, तो समझ जाइए, जनाब ने उस कर्मचारी से 'अपना आदमी' टाइप बांड बना लिया है। अब मिस्टर विश को Pine चाहिए थे, शायद उनसे कुछ 'खास' उम्मीदें थीं। लेकिन भाई, मैं Pine नहीं हूँ, और न ही किसी किस्म की स्पेशल डील या जुगाड़ मेरे पास है!

अब शुरू हुआ असली तमाशा। मिस्टर विश बोले, "तो देखिए, कमरा ऊपरी मंज़िल पर हो, कनेक्टिंग डोर न हो, पिछली बार 5353 नंबर मिला था, वही चाहिए।" मैंने मन ही मन सोचा—वाह भई, फरमाइशों की लंबी लिस्ट! लेकिन मैंने शांति से कमरे देखे और पाया कि बिना कनेक्टिंग डोर के एक ही कमरा खाली है, वो भी दूसरी मंज़िल पर। जानकारी दी तो साहब का मुंह फूल गया, "बस? दूसरी मंज़िल? कुछ और नहीं?" मैंने विनम्रता से कहा, "सर, फिलहाल यही उपलब्ध है।"

अब शुरू हुआ असली भारतीय जुगाड़—"चेक-इन का टाइम तो तीन बजे है, अभी 3:15 ही हुआ है, बाकी कमरे कब मिलेंगे?" मैंने भी अपने कम्प्यूटर की घड़ी देखकर जवाब दिया, "सर, चेक-इन टाइम तो है, लेकिन हर कमरा समय पर तैयार हो, ये ज़रूरी नहीं।" लेकिन साहब बार-बार घुमा-फिराकर पूछते रहे, "और कमरे कब मिलेंगे?" मैंने भी घुमा-फिराकर जवाब दिया, "सर, मेरे पास कमरों पर 'जीपीएस ट्रैकर' नहीं है।"

फिर पूछा—"रूम का व्यू कैसा है?" अब हमारा होटल हाईवे के पास है, व्यू का क्या ही कहना! मैंने सच-सच बता दिया—"एक तरफ हाईवे, दूसरी तरफ पार्किंग।" मिस्टर विश का थोड़ा सा चेहरा लटक गया। पत्नी की ओर इशारा करके बोले, "देखते हैं, इन्हें दूसरी मंज़िल कैसी लगेगी।" मैंने भी साफ़ कर दिया—"बार-बार कमरे बदलने की उम्मीद मत रखें, जो दिया है, वही है।" आख़िरकार, एक आधा-अधूरा 'धन्यवाद' बोलकर चुपचाप चाबी लेकर चले गए।

कुछ मिनट बाद साहब फिर आए, लेकिन इस बार सामान की ट्रॉली लेने। यानी, अंत में 'समझौता' कर ही लिया।

अब सोचिए, इतना हल्ला-गुल्ला सिर्फ एक रात के लिए!

यहाँ एक मज़ेदार बात और—होटल इंडस्ट्री के लोग खूब जानते हैं कि कुछ मेहमान ऊँची मंज़िल के पीछे क्यों भागते हैं। एक कमेंट में किसी ने लिखा, "मुझे तो बस कमरा लिफ्ट और आइस मशीन से दूर चाहिए, और अब नया एडिशन—कनेक्टिंग रूम बिल्कुल नहीं!" भारत में भी जब परिवार होटल में रुकता है, तो कई बार पड़ोसी कमरों की आवाजें, बच्चों की दौड़-भाग, या शादी वाले मौसम में हल्ला-गुल्ला—सब कुछ सुनाई देता है। इसलिए कुछ लोगों को ऊपर का कमरा पसंद आता है, ताकि सिर के ऊपर कोई न हो और शांति बनी रहे।

एक और पाठक ने चुटकी ली—"ऊपरी मंज़िल इसलिए चाहिए, ताकि ऊपर से कोई शोर न आए या बच्चों की कूद-फांद न हो।" किसी ने तो मज़ाक में कह दिया, "बेडबग्स (खटमल) दूसरी मंज़िल से ऊपर नहीं चढ़ते!"

वहीं, कुछ यात्रियों की सुरक्षा कारणों से ऊपरी मंज़िल पर रुकने की मजबूरी भी होती है, जैसे अकेली महिला यात्री या बिज़नेस ट्रैवलर्स। लेकिन ज़्यादातर बार 'ऊँची मंज़िल' का चक्कर बस एक 'दिखावे' या आदत है—वरना होटल का नज़ारा हो या न हो, कमरे की नींद ही असली सुकून है।

कभी-कभी तो लगता है, जैसे मेहमानों की फरमाइशें लिस्ट देखकर लिखी जाती हैं—"अगर नहीं मिला, तो शिकायत पक्की!" लेकिन असल जिंदगी में हर बार मनचाहा नहीं मिलता। रिसेप्शनिस्ट भी आखिर इंसान है, और 'जुगाड़' की एक सीमा होती है।

तो अगली बार जब आप होटल जाएँ और मनपसंद कमरा न मिले, तो थोड़ा समझौता कर लें। आखिर, एक रात की नींद—शांति से मिल जाए, यही बड़ी बात है। और याद रखिए—रिसेप्शन पर बैठे लोग भी आपकी तरह ही दिन भर की भागदौड़ में हैं।

क्या आपको भी कभी होटल में ऐसी कोई मज़ेदार या अजीबोगरीब फरमाइश सुनने को मिली है? अपने अनुभव नीचे कमेंट में ज़रूर साझा करें!


मूल रेडिट पोस्ट: Preferences, meet Circumstances