होटल के बाहर आधी रात को भटकते मुसाफिर: ऑनलाइन बुकिंग के जमाने में भी क्यों?
भाई, सोचिए – आधी रात का वक्त है, परिवार में बच्चे नींद में हैं, पेट्रोल की टंकी भी खाली होने को है, और आप एक होटल से दूसरे होटल के चक्कर काट रहे हैं... सिर्फ इसलिए कि कहीं कोई कमरा मिल जाए! ये कहानी किसी 90 के दशक की नहीं, आज के डिजिटल इंडिया की है। जब फोन की एक क्लिक पर आपको हर चीज़ मिल सकती है, फिर भी कई लोग होटल की रिसेप्शन पर आकर पूछते हैं – "भैया, कोई कमरा खाली है क्या?"
तकनीक का ज़माना, फिर भी पुराने ढर्रे की सोच
आपने सुना होगा – "पुरानी आदतें आसानी से नहीं जातीं!" Reddit के एक चर्चित पोस्ट में होटल स्टाफ ने यही दर्द साझा किया। उनका कहना है, अब तो हर होटल चेन की अपनी ऐप है, ऑनलाइन ट्रैवल एजेंसी (OTA) हर शहर-गाँव में पहुँच गई, फिर भी लोग कार में घूम-घूमकर रात में होटल तलाशते हैं। कई बार तो बच्चे, बुजुर्ग सब थके-हारे रिसेप्शन पर पहुँच जाते हैं और जवाब मिलता है – "माफ कीजिए, सारे कमरे बुक हो चुके हैं।"
एक यूज़र ने मज़ाकिया लहजे में लिखा – "मानो होटल वाले कहीं कमरे छुपाकर बैठे हैं, और जैसे ही कोई परिवार बच्चों के साथ आयेगा तो रहम खाकर वो सीक्रेट कमरा दे देंगे!" सच पूछिए तो, सिस्टम में अगर दिख रहा है कि सारे कमरे फुल हैं, तो वो जादू की छड़ी नहीं है जिससे नया कमरा निकल आए।
आधी रात, ऑनलाइन बुकिंग का झोल और ग़लतफ़हमी
यहाँ एक बड़ी वजह भी है – होटल का रात का ऑडिट। एक कमेंट में लिखा था, "आधी रात के बाद ऑनलाइन बुकिंग साइट्स पर आज की तारीख के कमरे दिखना बंद हो जाते हैं।" यानी अगर आप 1 बजे होटल पहुँचे, तो वेबसाइट पर अगले दिन की बुकिंग खुलेगी, आज की नहीं। ऐसे में कई लोग सोचते हैं कि ऐप झूठ बोल रही है, जबकि असल में सिस्टम की लिमिट है।
इस कन्फ्यूज़न के चलते लोग रिसेप्शन पर पहुँचकर कहते हैं – "ऑनलाइन तो दिखा नहीं, सोचा खुद ही पूछ लें।" और होटल वाले हर बार वही कहानी समझाते हैं – "भैया, दिन बदल गया है, सिस्टम बदल गया है, लेकिन हमारा रूम स्टॉक वही पुराना है!"
भरोसे की कमी और पुराने जमाने की यादें
हमारे यहाँ एक कहावत है – "देखा-भाला ही सही लगता है।" बहुत से लोग, खासकर बुजुर्ग, ऑनलाइन बुकिंग पर भरोसा नहीं करते। उन्हें लगता है, कहीं पैसे कट गए और कमरा न मिला तो? कई बार Google पर जो रेट दिखता है, होटल में दोगुना निकलता है। एक कमेंट ने बड़े मज़ेदार ढंग से लिखा – "Google तो झूठ बोलता है, 100 रुपये में कमरा दिखाता है, पहुँचो तो 300+ टैक्स!"
कुछ लोग फोन करने से भी कतराते हैं – आज की युवा पीढ़ी को फोन पर बात करना ही अजीब लगने लगा है! एक बुजुर्ग महिला ने लिखा – "हमारे ज़माने में STD कॉल महँगी थी, आज भी बहुत से लोग फोन करने में डरते हैं या झिझकते हैं।"
घूमना-फिरना या मजबूरी – किसका है हाथ?
हर यात्री लापरवाह नहीं होता। कई लोग लंबी ड्राइव पर होते हैं, पता नहीं कब कहाँ थक जाएँ, तब होटल तलाशना पड़ता है। एक यूज़र ने लिखा – "हम प्लानिंग नहीं करते, बस जब नींद आने लगे, रुक जाते हैं।" भारत में भी तो ऐसा आम है – रोड ट्रिप पर निकले, जहाँ थक गए, वहीं किसी ढाबे या सस्ते होटल में रुक गए।
लेकिन असली दिक्कत तब है जब वीकेंड या किसी त्योहार पर बगैर बुकिंग चले आते हैं। होटल वाले बेचारे क्या करें? एक कमेंट में होटल कर्मचारी ने लिखा – "सबसे बुरा लगता है जब बच्चे थके-हारे आ जाते हैं, और हमें मना करना पड़ता है।"
हल क्या है? – सीखें, समझें, और बचाएँ समय-धन
तो भाई-बहनों, टेक्नोलॉजी का सही फायदा उठाइए। प्लानिंग कर के चलें, ऐप या वेबसाइट से बुकिंग करें, या कम से कम एक फोन कर लें। इससे न सिर्फ आपका समय बचेगा, बल्कि बच्चों की नींद और आपका पैसा – दोनों सुरक्षित रहेंगे!
अगर अचानक योजना बदल जाए, तो भी नज़दीकी होटल में फोन कर के पूछना आसान है। और हाँ, होटल वालों की भी सुनिए – वो आपके दुश्मन नहीं, बस सिस्टम के नियमों के पाबंद हैं।
निष्कर्ष – आपकी राय क्या है?
आखिर में सवाल आपसे – क्या आपके साथ भी कभी ऐसी कोई 'होटल खोज यात्रा' हुई है? क्या आपको भी ऑनलाइन बुकिंग पर भरोसा नहीं होता? या कभी बच्चे-बुजुर्ग को लेकर आधी रात सड़क पर भटकना पड़ा? अपनी राय कमेंट में ज़रूर बताएँ, और अगर अगली बार रोड ट्रिप पर जाएँ, तो इस ब्लॉग की याद रखिएगा – शायद यही सलाह आपके काम आ जाए!
तो दोस्तों, अगली बार ऑनलाइन बुकिंग कीजिए, चैन की नींद लीजिए – और होटल स्टाफ को भी एक चैन की रात दीजिए!
मूल रेडिट पोस्ट: Why do people still drive hotel to hotel instead of just checking online?