स्कूल में 'केविन' जैसे मास्टरजी: जब नौकरी टैलेंट से नहीं, सिस्टम से मिल जाए
हमारे देसी स्कूलों में अक्सर आपने सुना होगा—“कहीं भी जाओ, मास्टरजी तो ऐसे ही मिलेंगे!” लेकिन आज जो कहानी है, वो अमेरिका के एक स्कूल की है, जहां ‘स्पेशल एजुकेशन’ के नाम पर एक ऐसे गुरुजी को नौकरी मिल गई, जो खुद ही सबसे ज़्यादा ‘स्पेशल’ निकले! मज़ेदार बात ये है कि अब तो साहब को ‘टेन्योर’ भी मिल गया है, यानी कोई हाथ भी नहीं लगा सकता। सोचिए, अगर हमारे सरकारी स्कूलों में ऐसे लोग घुस जाएं, तो क्या हाल हो?
गुरुजी का इंटरनेट से युद्ध और दही वाला टाई
कहानी की शुरुआत होती है ‘एलेक्स’ नाम के एक मास्टरजी से, जो उम्र में कुछ बड़े हैं, पर दिमाग़ी तौर पर... चलिए छोड़िए। जब वे पहली बार स्कूल पहुंचे, तो सबसे पहली जंग थी—वायफाय से जुड़ने की। पासवर्ड डालने में ही पसीना-पसीना! हमारे यहां तो चाय वाले भाई भी अब क्यूआर कोड से पेमेंट ले लेते हैं, पर एलेक्स साहब को बार-बार मदद चाहिए। एक बार नहीं, दो बार नहीं, बार-बार।
अब नए मास्टर को थोड़ा वक्त लगता है सब सीखने में, ऐसा तो चलता है। लेकिन जब उनकी सहकर्मी ‘विल्मा’ ने बताया कि एलेक्स जी को पूरे दिन टाई पर दही लगा रहा और उन्हें ख़ुद पता भी नहीं चला... तो थोड़ा शक़ होना लाज़िमी था। सोचिए, क्लास के बच्चों में कौन-सी प्रेरणा जगेगी, जब अध्यापक की टाई में ही अपनी दुनिया बसी हो!
खो जाने वाले मास्टरजी और क्लासरूम का भूलभुलैया
चार महीने बाद जब लेखक खुद एलेक्स की क्लास में गए और पूछा—“ऑड्रियाना आई है?” तो एलेक्स जी ने गलत बच्चे की तरफ़ इशारा कर दिया। चार महीने बाद भी नाम याद नहीं! हमारे देसी स्कूलों में तो बच्चे ‘गोलू’, ‘पिंकी’ जैसे नाम से भी मास्टरजी को पहचान लेते हैं। लेकिन यहां मास्टरजी ही रोज़ अपनी क्लास का रास्ता भूल जाते हैं। स्कूल के दो ही कमरे थे, फिर भी हर दिन रास्ता पूछना पड़ता।
ऊपर से, इनकी ड्यूटी कागजों में तो है, पर हकीकत में काम कोई और कर रहा है। जैसे हमारे यहां कई बार सरकारी दफ्तरों में ‘नाम के बाबू’ होते हैं, असल में काम कोई जूनियर कर रहा होता है।
मीटिंग की कुर्सी और दरवाज़े की पहेली
एक दिन की बात है—स्टाफ मीटिंग थी, सबको अपनी-अपनी कुर्सी लानी थी। एलेक्स जी बस सबको घूरते रहे। आख़िर में एक टीचर ने कहा, “अरे छोड़ो, मैं ही ला देता हूं।” मास्टरजी बस शांति से बैठ गए, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
और तो और, स्कूल में घुसने के लिए एक बटन दबाना होता है या आईडी टैप करनी होती है। एक दिन लेखक ने देखा कि एलेक्स जी पूरे दो मिनट दरवाजे को ताकते रहे, जैसे कोई रहस्य छुपा हो। जब लेखक ने खुद बटन दबाया, तो मास्टरजी ने ऐसे देखा जैसे किसी ने ताला तोड़कर मंदिर खोल दिया हो!
कम्युनिटी की राय: मास्टरजी ही स्पेशल हैं या सिस्टम?
अब Reddit की जनता भी चुप नहीं रही। एक यूज़र ने लिखा—“हमारे यहां भी ऐसे लोग हैं, जिनकी वजह से बाकी 14 टीचर्स का काम आधे दिन में हो जाता है, पर इन एक जनाब के लिए पूरा दिन लग जाता है।” एक और ने सवाल उठाया—“क्या ये खुद ही किसी स्पेशल ज़रूरत वाले वयस्क हैं, जिन्हें गलती से जॉब मिल गई?”
एक पैरेंट ने तो ये तक लिख दिया—“अगर मेरे बच्चे के मास्टरजी ऐसे हों, तो मैं प्रिंसिपल के यहां धरना दे दूं!” वहीं, एक टीचर ने उम्मीद जताई—“शायद एलेक्स बच्चों से उनकी ही भाषा में बात कर पाते हैं, और कहीं-न-कहीं ऐसे लोग भी ज़रूरी हैं।”
हमारे यहां भी सरकारी सिस्टम में ऐसे कई ‘केविन’ मिल जाते हैं, जो नियम-कायदों के जाल में फंसकर नौकरी टिकाए रहते हैं और बाकी लोग बस सिर पकड़कर बैठ जाते हैं।
टेन्योर का जादू: “बॉडी है तो नॉडी है!”
लेखक ने खुद भी लिखा—“मुझे समझ नहीं आता, ऐसे आदमी को कोई नौकरी से कैसे निकाल नहीं सकता? हर तिमाही रिपोर्ट में गलती हो तो फटाफट नोटिस आ जाता है, पर ये साहब तीन साल से बिना ट्रेनिंग के टिके हैं!”
असल में, अमेरिका हो या इंडिया, सिस्टम में वो जादू है—“अगर बॉडी है तो नॉडी है।” यानी, खालिस उपस्थिति ही काफ़ी है, चाहे काम हो या न हो। और जब एक बार ‘टेन्योर’ मिल जाए, फिर तो साहब राजा!
निष्कर्ष: ऐसे ‘केविन’ आपके आसपास भी हैं?
इस कहानी में हंसी मज़ाक के साथ एक गहरी बात भी छुपी है। क्या हमारे सिस्टम में ऐसे लोग टिके रहते हैं, जो असल में काम के नाम पर बोझ हैं? या कहीं-कहीं सिस्टम की गड़बड़ी से कुछ लोगों को जीने का, कमाने का मौका भी मिल जाता है, जो शायद कहीं और न मिल पाता।
आपके स्कूल, दफ्तर या मोहल्ले में भी कोई ऐसा ‘केविन’ है? ऐसे अनुभव या मजेदार किस्से जरूर शेयर करें!
“मास्टरजी की टाई पर दही हो या क्लासरूम का रास्ता भूल जाना—कहानी तो मजेदार है, पर सोचने वाली भी है। क्या आप भी ऐसे किसी ‘स्पेशल’ गुरुजी को जानते हैं?”
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मूल रेडिट पोस्ट: We Need Special Ed Teachers. So We Hired Kevin. Kevin has Tenure Now.