स्कूल की बाउंसी बॉल्स और छोटी सी मीठी बदला कहानी
हमें बचपन में स्कूल की यादें बहुत प्यारी लगती हैं – कभी सुबह जल्दी उठकर बस्ता टांगना, कभी खेल के मैदान में दोस्तों संग शरारतें, तो कभी क्लासरूम में किसी की नकल उतारना। लेकिन हर स्कूल में एक-दो ऐसे चेहरे भी होते हैं, जिनसे बनती कम ही है – और कभी-कभी तो उनका मज़ाक या तंज़ बरसों तक याद रह जाता है। आज मैं आपको एक ऐसी ही कहानी सुना रहा हूँ, जिसमें बाउंसी बॉल्स तो हैं ही, साथ में है छोटी-सी मीठी बदला की झलक!
स्कूल की ट्रिप और बाउंसी बॉल्स का जादू
बात है मिडिल स्कूल के दिनों की। स्कूल की तरफ़ से एक दिन स्केटिंग रिंक (यानि रोलर स्केटिंग के लिए बड़ा हॉल) में फ़ील्ड ट्रिप रखी गई। बच्चों का मन तो वैसे ही फिसलपट्टी और मस्ती में लगता है, लेकिन यहाँ तो चमत्कार ही था – रिंक के एक कोने में बाउंसी बॉल्स के ढेर सारे डिस्पेंसर लगे थे। बस, एक क्वार्टर (वहाँ की चवन्नी) डालो, रंग-बिरंगी बाउंसी बॉल्स झोली में!
अब आप सोचिए – जैसे हमारे यहाँ मंदिर के बाहर रंगीन गुब्बारे या चूड़ी वाले मिल जाते हैं, वैसे ही वहाँ बच्चों की दीवानगी इन बाउंसी बॉल्स पर थी। कुछ बच्चे तो इतने जोश में आ गए कि बॉल्स इकठ्ठा करने में ही पूरा ट्रिप निकाल दिया। एक-एक के पास जिपलॉक बैग भर गए – जैसे कोई छोटा मोटा खज़ाना मिल गया हो।
जब शरारतों का हिसाब-किताब मिलने लगा
हर स्कूल में एक 'स्पेशल' बच्ची या बच्चा ज़रूर होता है – जो अक्सर तंग करता है, बात-बात पर तंज कसता है, लेकिन खुलकर कभी झगड़ा नहीं करता। ऐसे ही एक लड़की थी, जो कभी-कभार ताना मारती, लेकिन खुल्लमखुल्ला बुली नहीं थी। मैं वैसे भी टकराव से दूर रहता था, इसलिए उसकी बातों को अक्सर अनसुना कर देता था – पर मन ही मन नाराज़गी तो थी ही।
ट्रिप के बाद जब स्कूल लौटे, तो मैं अपनी जिपलॉक बैग में बाउंसी बॉल्स लिए धीरे-धीरे चल रहा था। तभी वो लड़की पीछे आकर बोली, "अरे, दो-तीन बॉल्स दे दो ना!" अब दिल में तो सोचा – "आज मौका है!" जैसे हमारे यहाँ कहते हैं, "आज नवरात्रि है, आज तो माँगने वाले को हाथ जोड़ो!"
मैंने मुस्कुराते हुए साफ़ मना कर दिया। उसके चेहरे पर जो झुंझलाहट आई, वह आज भी याद है। उस पल का मज़ा कुछ अलग ही था; जैसे किसी ने बचपन की छोटी जीत दिला दी हो।
जब कमेंट्स में आई बच्चों की अपनी बदला कहानियाँ
रेडिट पर इस कहानी ने तो खूब धमाल मचाया। एक यूज़र ने बहुत मज़ेदार अंदाज़ में लिखा – "सोचो, वो लड़की अकेले कमरे में बैठी है, उसके पास बाउंसी बॉल्स का ढेर है, लेकिन तुम्हारी बॉल्स नहीं हैं, इसलिए कभी संतुष्ट नहीं होगी!" क्या बात है, जैसे हमारे यहाँ कहते हैं – "पराई चीज़ में हमेशा ज़्यादा मज़ा आता है!"
एक और कमेंट पढ़कर तो हँसी छूट गई – "ये बड़ा हिम्मत वाला काम था! ऐसी हिम्मत सबमें नहीं होती!" ऊपर से किसी ने जोड़ा, "अब वो कभी इस झटके से बाउंस नहीं कर पाएगी!"
कुछ लोगों ने अपनी स्कूल की बदला कहानियाँ भी शेयर कीं। एक ने लिखा, "मैंने भी एक बार कैंडी बाँटते समय तंग करने वाली लड़की को मना कर दिया था – और कहा, जब कभी अच्छा बर्ताव करोगी, तभी दूँगी।" उस पल की छोटी-सी जीत ने उसे 'रानी' जैसा महसूस करवाया।
क्या छोटी-छोटी बदला ज़रूरी हैं?
अब सोचिए, ये एक मामूली घटना थी। न कोई लड़ाई, न कोई झगड़ा, बस एक हल्की सी 'ना' कहना। लेकिन ऐसे छोटे-छोटे पलों में ही तो हम अपने आत्म-सम्मान की लड़ाई जीतते हैं। कई बार सालों बाद भी ये पल मीठी याद बनकर दिल में घर कर जाते हैं।
जैसे एक कमेंट में किसी ने लिखा, "कुल्हाड़ी को वो वार याद रहता है, पेड़ भूल जाता है।" यानी जिसने दुख दिया, उसे तो याद नहीं रहता, लेकिन जिसने झेला, उसके लिए वो याद हमेशा ताज़ा रहती है।
बचपन की यादें, छोटी जीतें
हमारे हिंदी समाज में भी ऐसे किस्से खूब सुनने को मिलते हैं – चाहे वो गली-मोहल्ले के लट्टू हों, किसी दोस्त की रंगीन कंचे, या पिकनिक पर बांटी गई टॉफियाँ। कई बार छोटी-छोटी बातों में ही बड़ी तसल्ली मिलती है – जैसे किसी ने 'गुल्लक' से पैसे चुराने वाले से बदला ले लिया हो।
तो अगली बार जब आप अपने बचपन की छोटी-छोटी जीतें याद करें, तो ये सोचिए – भले ही सामने वाला भूल गया हो, आपके लिए वो पल हमेशा खास रहेगा। आखिरकार, यही तो असली 'बाउंसी बॉल' है – जो हमें अंदर से उछाल देती है!
आपकी क्या कहानी है?
तो दोस्तों, क्या आपके साथ भी कभी ऐसा हुआ है? कोई छोटी-सी जीत, जो आज तक याद है? कमेंट में ज़रूर बताइएगा – क्योंकि बचपन की शरारतें और छोटी-छोटी बदला कहानियाँ सबकी ज़िंदगी में मिठास घोल देती हैं!
मूल रेडिट पोस्ट: Many years ago, denying a mean girl some bouncy balls when she asked.