मेरे मुकाबले में टेक्नोलॉजी: रात की शिफ्ट, कंप्यूटर की आफत!
भाई साहब, ऑफिस में सबको लगता है जो रात की शिफ्ट में काम करता है, उस पर भगवान का कोई खास वरदान है—कुछ भी पकड़ा दो, कर देगा! लेकिन असली सच्चाई तो तब समझ आती है जब ‘कंप्यूटर सेटअप’ जैसा बवाल सिर पर आ गिरे। सोचिए, बॉस साहब ने एकदम बॉलीवुड वाले स्टाइल में कंप्यूटर के डिब्बे पकड़ाए और बोले, “बस, इनको जोड़ देना है। कोई बड़ी बात नहीं है!” अब भाई, ये न कोई शादी की पंडाल सजाना था, न ही पकोड़े तलना था—ये तो कंप्यूटर था, और वो भी नए!
रात की शिफ्ट: जब टेक्नोलॉजी ने दिमाग की बत्ती गुल कर दी
रात भर, पूरे आठ घंटे, मैं कंप्यूटर जोड़ने की जुगत में लगा रहा। पहले तो लगा कि चलो, दो-चार तारें जोड़नी हैं, हो जाएगा। पर जैसे-जैसे एक के बाद एक एरर आए, वैसे-वैसे मेरा माथा ठनकने लगा। दो कंप्यूटर तो जैसे-तैसे जोड़ दिए, लेकिन तीसरा? अरे भैया, वो तो ऐसे अड़ा जैसे दूल्हा बारात लेकर दरवाजे पर खड़ा है, लेकिन दहेज कम पड़ गया हो!
एक कंप्यूटर तो शांति से चल पड़ा, पर दूसरे वाले का कार्ड रीडर ही काम नहीं कर रहा था। मैंने आईटी सपोर्ट को टिकट डाला, इधर से उधर भागा, लेकिन जवाब आया—‘टिकट क्लोज्ड।’ बिना बताए, बिना हल निकाले! दोबारा टिकट खोलनी पड़ी। सोचिए, रात के अंधेरे में, अकेले, और कंप्यूटर के चक्कर में दिमाग की दही!
बॉस की दया? या काम का बोझ!
हमारे यहां अक्सर बॉस को लगता है, ‘रात के बंदे के पास टाइम ही टाइम है।’ एक कमेंट करने वाले ने तो बड़ा सही कहा, “ये मेरे जॉब डिस्क्रिप्शन के बाहर है!” (यानी ये काम मेरी जिम्मेदारी में नहीं आता)। लेकिन अपने यहां तो बॉस का हुक्म ही फरमान होता है—जो बोल दिया, वो करना ही है। ऊपर से गाइडेंस का नामोनिशान नहीं, न कोई मैन्युअल, न कोई ट्रेनिंग—बस, ‘कर दो!’
एक और पाठक ने सलाह दी कि ऐसे काम तभी पकड़ो जब आईटी सपोर्ट फोन के एक रिंग पर उठ जाए। वरना साफ बोल दो, ‘भाई, ये मुझसे नहीं होगा, असली आईटी वाले को बुलाओ।’ लेकिन यहां तो हालत ये कि सपोर्ट सेंटर भी रात को आराम फरमा रहा है, और मैं अकेला जूझ रहा हूं।
भारतीय ऑफिस संस्कृति और ‘सब कुछ कर लो’ वाली सोच
अपने देश में भी यही हाल है। ऑफिस में कोई भी नया काम हो, सबसे पहले नज़र जाती है उस बंदे पर जो थोड़ी-बहुत टेक्नोलॉजी जानता है—चाहे उसका असली काम कुछ और हो। जैसे, अगर आप वॉर्ड फाइल खोलना जानते हो, तो प्रिंटर जोड़ना भी आप ही करेंगे, और सीसीटीवी केबल भी! और गलती से कोई एरर आ जाए, तो ‘अरे यार, तू ही देख ले, तुझे तो आता है।’
रेडिट पर एक यूजर ने कहा, “अगर ये फ्रंट डेस्क के कंप्यूटर हैं, तो ब्रांड की आईटी टीम ही सेटअप क्यों नहीं कर रही?” बिलकुल सही! पर बॉस ने कहा, ‘मुझे ही कहा गया है सेटअप करो।’ अब बताओ, ऊपर से नीचे तक वही आलम—काम किसी का, टेंशन किसी और की!
टेक्नोलॉजी के नाम पर सिरदर्द और जुगाड़
सच कहूं तो, जितना बड़ा नाम टेक्नोलॉजी का है, उतनी ही बड़ी उसकी आफत भी है—खासकर जब ऑफिस की सिक्योरिटी सेटिंग्स हर दो कदम पर रोड़ा अटकाती हैं। एक तरह से ‘सुरक्षा कवच’ इतना बड़ा बना दिया है कि काम करना ही मुश्किल हो गया। एक पाठक का मज़ेदार कमेंट था, “दो काम, एक की तनख्वाह—यानी दोगुना बोझ, लेकिन पैसा वही!” जैसे हमारे यहां बोला जाता है, ‘ऊपर से दाल कम, नमक ज्यादा!’
आखिरकार, मैंने हार मान ली। एक कंप्यूटर तो ठीक-ठाक चल रहा था, लेकिन दूसरे का कार्ड रीडर ठीक नहीं हुआ। तीसरा तो जैसे बाप की जिद पर अड़ा था—‘मैं नहीं चलूंगा!’ बॉस को बता दिया, अब देखो क्या करते हैं। वैसे, एक पाठक ने तो मज़ाक में कह दिया, “अब तो सीवी में आईटी का अनुभव भी जोड़ लो!”
अब तो चाय-कॉफी या कुछ और...?
इस पूरी जद्दोजहद के बाद दिल से आह निकली—‘अब तो एक कड़क चाय या ठंडी बोतल (जैसे अंग्रेज़ी में कहते हैं, stiff drink) तो बनती है!’ असल में रात भर की मेहनत के बाद, जब नतीजा आधा-अधूरा निकले, तो जो निराशा होती है, वो सिर्फ वही समझ सकता है जिसने खुद ये ‘युद्ध’ लड़ा हो।
निष्कर्ष: क्या आपके ऑफिस में भी ऐसा होता है?
दोस्तों, ये कहानी सिर्फ मेरी नहीं है। शायद आप में से कई ने ऑफिस में ऐसे ‘जुगाड़ू’ बनकर काम किया होगा जहाँ जिम्मेदारी तो बिना मतलब के सिर पर आ जाती है, लेकिन न मदद मिलती है, न ट्रेनिंग। तो अगली बार जब कोई बॉस ऐसे काम थोपे, तो सोचिए—क्या आप ‘सब कुछ कर सकते हैं’? या फिर सही से ‘न’ कहना भी जरूरी है?
अगर आपके साथ भी ऐसे मजेदार (या सिरदर्द वाले) अनुभव हुए हैं, तो नीचे कमेंट में जरूर बताइए। साथ ही, अपने जुगाड़ या स्मार्ट टिप्स भी साझा करें—क्योंकि ऑफिस के असली हीरो वही हैं, जो हर संकट में भी हँसी-मजाक और जुगाड़ से काम निकाल लेते हैं!
आखिर में बस यही कहूंगा, टेक्नोलॉजी से लड़ना आसान नहीं, लेकिन हिम्मत और थोड़ी-सी हँसी-मजाक के साथ हर मुश्किल आसान हो जाती है!
मूल रेडिट पोस्ट: me vs technology