मुफ्त टिकट के लिए नखरे? तो भैया, लंबा रास्ता और बस यात्रा का मज़ा लो!
कहते हैं, "मुफ्त की चीज़ में नखरे नहीं करने चाहिए" — लेकिन कुछ लोग तो जैसे इस बात को सीरियसली लेना ही भूल जाते हैं! आज हम आपको एक ऐसी मज़ेदार और सिखाने वाली कहानी सुनाने जा रहे हैं, जिसमें एक महिला के 'हकदारी' वाले व्यवहार का जवाब इतने देसी स्टाइल में मिला कि सुनकर आपके चेहरे पर भी मुस्कान आ जाएगी।
"मदद" की भी अपनी हद होती है!
कोरोना के दौर में जब पूरी दुनिया उलझन में थी, हांगकांग में रहने वाले एक सज्जन (मान लीजिए नाम है अजय) ने और उनकी पत्नी ने दिल खोलकर लोगों की मदद की। ये दोनों भारत से बाहर बसे थे और ईस्टर की छुट्टियों में अपने देश लौटना चाहते थे, लेकिन लॉकडाउन ने सब फेल कर दिया। हाँ, अजय और उनकी पत्नी ने सोचा, चलो कम से कम उन लोगों की मदद करें जो वाकई फँस गए हैं — और ऐसे 10 लोगों की वतन वापसी के टिकट भी खुद ही बुक कर दिए।
अब आते हैं असली कहानी पर—बीजिंग में फँसीं 'मेल' (काल्पनिक नाम)। मेल के पास पैसे नहीं थे, हालात खराब थे, और वो दक्षिण अफ्रीका (यहाँ भारत की जगह समझिए अपने राज्य वापस जाना) लौटना चाहती थीं। अजय ने दिल बड़ा किया और मेल को भी टिकट ऑफर कर दिया, लेकिन साफ़ कहा, "भैया, बजट में ही टिकट मिलेगा, सीधी फ्लाइट की उम्मीद न पालो!"
मुफ्त की टिकट, पर फिर भी 'डायरेक्ट फ्लाइट' चाहिए!
अब सोचिए, जब कोई मुफ्त में कुछ दे रहा है, तो आदमी शुक्रगुज़ार होता है। लेकिन मेल ने तो सीधा डिमांड कर दी—"मुझे बीजिंग से सीधा जोहान्सबर्ग, फिर वहाँ से ईस्ट लंदन (दक्षिण अफ्रीका का एक शहर, न कि इंग्लैंड वाला) तक दो फ्लाइट्स की टिकट चाहिए।" और आजकल के टिकटों की कीमत, ऊपर से कोरोना का डर—अजय को लगा, "इतना भी क्या हकदारी!"
अजय ने समझाया, "देखो, अगर मल्टी-स्टॉप वाली, यानि दो-तीन जगह रुकती फ्लाइट ले ली जाए तो काफी सस्ता पड़ेगा।" लेकिन मेल नहीं मानी, "या तो डायरेक्ट या फिर कोई टिकट नहीं चाहिए!"
अब यहाँ एक मज़ेदार कमेंट याद आ रहा है, एक पाठक ने लिखा—"भई, भीख माँगने वालों को भी इतनी पसंद-नापसंद?" (देसी मुहावरा है, "भिखारी को क्या चाहिए? दो वक़्त की रोटी!")
जब हालात ने घुटने टिकवाए, तो मज़ा ही आ गया!
कुछ दिनों तक अजय ने मेल की कोई खबर नहीं ली और दूसरों की मदद में लग गए। लेकिन जैसे ही लॉकडाउन सिर पर आया, मेल के होश उड़ गए और फटाफट अजय को कॉल किया, "अब कोई भी टिकट चलेगी, बस वापस पहुँचा दो!"
अब यहाँ असली 'पेटी रिवेंज' (छोटी मगर असरदार बदला) शुरू होती है। अजय ने मेल के लिए सबसे लंबा, थकाऊ सफर चुना—तीन स्टॉप वाली फ्लाइट (करीब 40 घंटे की यात्रा), और जोहान्सबर्ग से ईस्ट लंदन के लिए सीधा बस टिकट—वो भी 20 घंटे की बस यात्रा! सोचिए, लंबी-लंबी फ्लाइट, एयरपोर्ट में इंतज़ार, और आखिर में बस की सीट पर 20 घंटे का सफर!
यहाँ एक और कमेंट की याद आ रही है—"उसकी किस्मत थी कि आप फिर भी मदद कर रहे थे। अगर मैं होता तो सीधा कह देता, 'भई, अब खुद देख लो!'"
सबक: दान की बछिया के दाँत नहीं गिने जाते
मेल ने यात्रा के दौरान अजय को लगातार अपडेट दिए—परेशानी, गुस्सा, थकान—सब कुछ। लेकिन अजय को कोई मलाल नहीं था। उन्होंने खुद कहा, "मुझे पैसे वापस मिले या नहीं, लेकिन इतना लंबा सफर करवा कर आत्मा को शांति जरूर मिली!"
एक दूसरे पाठक ने चुटकी ली—"शायद मेल अब अपने पोते-पोतियों को बताएगी कि कैसे उन्हें 90 घंटे लग गए घर पहुँचने में, और कैसे 'अजय अंकल' ने उन्हें तकलीफ में डाला!"
कई लोगों ने अजय की दरियादिली की भी तारीफ की—किसी ने कहा, "आजकल ऐसे लोग कम मिलते हैं, जो बिना स्वार्थ के मदद करें।" वहीं किसी ने इसे 'अच्छी और मजेदार सज़ा' बताया—'थोड़ा बदला, थोड़ा भला!'
निष्कर्ष: कभी-कभी 'लंबा रास्ता' सबसे अच्छा सबक होता है
इस कहानी से एक बात तो साफ़ है—मदद करने वाले का दिल बड़ा होना चाहिए, लेकिन लेने वाले को भी विनम्रता दिखानी चाहिए। 'मुफ्त की चीज़' में नखरे करने का नतीजा ये होता है कि आपको डायरेक्ट टिकट की जगह 60 घंटे का सफर और 20 घंटे की बस यात्रा नसीब हो जाती है!
तो अगली बार जब कोई आपको बिना किसी स्वार्थ के मदद करे, तो 'शुक्रिया' बोलना न भूलें, और भूल से भी नखरे न करें—वरना हो सकता है, आपको भी 'लंबा रास्ता' मिल जाए!
आपकी क्या राय है? क्या कभी आपके साथ भी किसी ने ऐसा ही 'पेटी रिवेंज' किया है, या आपने किसी को सबक सिखाया है? अपने अनुभव कमेंट में जरूर साझा करें!
मूल रेडिट पोस्ट: Be entitled over a free plane ticket home? Enjoy the multi-stop and bus ticket home.