ब्रिटेन के होटल की गर्मियों की नौकरी: ये कैसी आफ़त है भैया!
कभी सोचा है कि होटल में काम करना कितना आसान होगा? एसी रूम, बढ़िया मेहमान, बस रिसेप्शन पर मुस्कराना और गेस्ट्स को चाबी देना! लेकिन जनाब, ये सिर्फ़ हिंदी फिल्मों में ही होता है। असलियत में तो होटल की नौकरी भी किसी देसी सरकारी दफ्तर के झंझट से कम नहीं! आज आपको ले चलते हैं यूके के एक ‘पर्पल ब्रांड’ होटल की रोचक, अजीब और कभी-कभी सिर पकड़ लेने वाली दुनिया में, जहां एक भारतीय युवा ने अपनी गर्मियों की छुट्टियों में नौकरी की और जो देखा, वो सुनकर आप भी कहेंगे – “हाय राम, ये क्या आफ़त है!”
होटल या सराय? – जब समाजसेवी बने सिरदर्द
इस होटल की कहानी कुछ वैसी ही है जैसे हमारे यहाँ के धर्मशाला या सरकारी गेस्ट हाउस – जहाँ हर कोई अपनी सिफ़ारिश और जुगाड़ से घुसने की कोशिश करता है। यहां भी, समाजसेवी (सोशल वर्कर) लोग बार-बार होटल में ऐसे मेहमान लाने लगे, जिनकी देखभाल असल में अस्पताल या देखरेख केंद्र (केयर होम) में होनी चाहिए थी।
एक बार तो हद ही हो गई – एक 18 साल का लड़का, जिसे मानसिक बीमारी थी, अचानक होटल के रिसेप्शन पर चिल्लाता हुआ भाग गया। समाजसेवी बोले, “भैया, इसे रात भर आपकी देखरेख में छोड़ रहे हैं, दवाइयां भी आप ही टाइम पर दे देना!” अब आप ही बताइए, होटल वाले बेचारे कहाँ डॉक्टर बनेंगे? होटल कर्मचारी ने भी देसी अंदाज में मना कर दिया, “माफ़ कीजिए, हमारे यहाँ कोई कमरा खाली नहीं है!”
एक मजेदार कमेंट में किसी ने लिखा – "अगर ऐसे समाजसेवी भारत में होते, तो उनका लाइसेंस कब का रद्द हो चुका होता!" सही भी है, यहाँ तो समाजसेवी और सरकारी कर्मचारी अपनी जिम्मेदारी ऐसे टालते हैं जैसे बच्चे होमवर्क टालते हैं।
होटल का हाल – बाहर से चमक-दमक, अंदर से बंटाधार
होटल भले ही बाहर से ‘पर्पल ब्रांड’ की शान दिखाए, अंदर से हाल वही – “नाम बड़े, दर्शन छोटे!” एक तरफ़ रिवर (नदी) का पानी दो बार होटल का जेनरेटर बहा ले गया, तो दूसरी तरफ़ खाना परोसने वाले (वेटर) बस दो गिने-चुने, और रसोइये तो जैसे कभी भी इस्तीफा देकर भाग जाएँ! सोचिए, खाना खाने वाले गेस्ट्स लाइन में खड़े हैं और किचन का स्टाफ़ ‘राम-राम’ करके निकल जाता है! ऐसे में कई बार गेस्ट्स ने रिसेप्शनिस्ट से ही खाना बनाने को कह दिया – “आप ही बना दीजिए!” अब भला, होटल कर्मचारी कब शेफ बना!
एक कमेंट में किसी ने बढ़िया लिखा – “होटल के मैनेजर को तो फायर करने की धमकी दो, पर असल में स्टाफ़ ही इतना कम है कि अगर एक भी गया, तो मैनेजर को खुद ड्यूटी करनी पड़ेगी!” ये लाइन किसी भी सरकारी दफ्तर के बाबू की याद दिला देती है – “हमें हटाओगे तो काम कौन करेगा?”
चोरी-चकारी और झगड़े – होटल नहीं, मुहल्ला!
इधर होटल के बाहर पार्किंग में लगातार गाड़ियों के पार्ट्स और औजार चोरी हो जाते। कैमरे तो थे, पर सिर्फ़ दिखाने के लिए – असल में काम नहीं करते! होटल वालों ने ग्राहकों को सलाह दी – “भैया, अपने औजार कमरे में रख लो, वर्ना सुबह गायब मिलेंगे!” बिल्कुल वैसा ही जैसे अपने यहाँ लोग गाड़ी की बैटरी या साइड मिरर खोलकर घर ले जाते हैं।
कर्मचारियों में भी आपसी ‘बिचिंग’ (झगड़े) आम बात थी। किसी ने लिखा – “हमारे यहाँ तो हफ्ते में एक बार शिफ्ट का टाइम पता करने के लिए खुद आना पड़ता था, क्योंकि सब कुछ कागजों पर चलता था!” ये सुनकर तो हर वो बंदा मुस्कुरा देगा, जिसने कभी सरकारी नौकरी या छोटे शहर की दुकान में काम किया हो।
मेहमानों के नखरे – होटल वाला भी आखिर इंसान है!
अब बात करें मेहमानों की, तो भैया यहाँ भी कोई कमी नहीं थी। कोई कहे – “हमारा खाना अभी और चाहिए”, कोई शिकायत करे – “स्टाफ़ कहाँ है?”, तो रिसेप्शनिस्ट बोले – “आज तो मैं ही सब कुछ हूँ, चाहें तो खुद ही बना लें!” किसी ने बड़े मजेदार ढंग से कमेंट किया – “हम इनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सकते, तो बुकिंग रद्द कर देता हूँ, सामान उठाइए और विदा लीजिए!”
जैसे हमारे यहाँ ‘किराएदार’ घरमालिक से उलझ जाते हैं, वैसे ही होटल मेहमान भी गुस्से में धमकी देने लगते – “तुम्हें नौकरी से निकलवा दूँगा!” पर सच्चाई यही थी कि होटल में स्टाफ़ ही इतना कम था कि कोई निकला, तो मालिक को खुद झाड़ू-पोंछा करना पड़ेगा!
नौकरी का अनुभव – ‘पर्पल ब्रांड’ या ‘परेशानी की खान’?
कई पुराने कर्मचारियों ने भी अपना दुखड़ा रोया – कोविड के बाद नौकरी से निकाले गए, नया कॉन्ट्रैक्ट ऐसा कि कोई भी काम, कोई भी शिफ्ट करनी पड़े, वेतन वही मामूली! भारतीय पाठक यही सोचेंगे – “अरे, ये तो हमारे यहाँ का हाल है! यहाँ भी कॉन्ट्रैक्ट बदलते ही सबकी शामत आ जाती है।”
एक और मजेदार कमेंट था – “हम इनकी देखभाल करने वाले नहीं, इनकी मेहमाननवाजी करने वाले हैं!” एकदम सही – होटल का काम मेहमानों को सुविधा देना है, न कि समाजसेवियों का बोझ ढोना।
निष्कर्ष – होटल की नौकरी: सुनने में आसान, करने में आफ़त!
तो भैया, अगली बार होटल में ठहरे तो रिसेप्शनिस्ट से ज़रा दयालुता से पेश आना – क्या पता, वो अकेला ही सारी जिम्मेदारी निभा रहा हो! और अगर कभी ऐसा लगे कि होटल का स्टाफ़ परेशान है, तो याद रखना – हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती, और हर बढ़िया दिखने वाला होटल अंदर से एक ‘सर्कस’ भी हो सकता है।
आपका क्या अनुभव रहा है होटल में? या कभी ऐसी अजीब नौकरी की हो? कमेंट में जरूर बताइए!
“अंत भला तो सब भला” – इस होटल की कहानी भले ही फिल्मों जैसी न हो, मगर इससे मिली सीख जरूर असली है: हर नौकरी में मेहनत, सब्र और कभी-कभी देसी जुगाड़ चाहिए ही चाहिए!
मूल रेडिट पोस्ट: Tales from a summer job at the UK purple brand.