बुज़ुर्ग महिला के आंसुओं की कीमत: एक गद्दे की दुकान में हुई छोटी लेकिन तीखी बदला-कहानी
कहते हैं, बुज़ुर्गों की दुआ और बद्दुआ दोनों भारी पड़ती है। इस कहानी में एक छोटे शहर की गद्दे की दुकान, एक बीमार बुज़ुर्ग और उसके लिए लड़ने वाले एक ईमानदार कर्मचारी की कहानी है। दिल तोड़ने वाली घटनाओं से भरी इस दास्तान में इंसानियत, जमीर और छोटे-छोटे बदले की बड़ी ताकत का एहसास होता है।
जब ग्राहक का भरोसा टूटा
ये कहानी एक छोटे से 'ऑफब्रांड' गद्दे की दुकान की है, जहाँ एक युवक (जिसे हम 'नायक' कहेंगे) काम करता था। एक दिन वहाँ एक प्यारी सी बुज़ुर्ग महिला आई। वो घंटों गद्दे आज़माती रही। आखिरकार उसने बताया कि उसका पति बाहर इंतज़ार कर रहा है — और वो कैंसर से जूझ रहे हैं। पति की हालत देखकर महिला ने फौरन गद्दा खरीदने का निर्णय लिया, ताकि उनके आखिरी दिनों में थोड़ी राहत मिल सके।
नायक ने अपने दिल से उनकी मदद की। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। कुछ दिन बाद, मैनेजर की नौकरी छोड़ने के बाद, महिला का फोन आता है—"गद्दा कब आएगा बेटा?" नायक ने ऊपर वालों से पूछा तो पता चला, गद्दा तो हफ्तों तक आने वाला ही नहीं! बड़े साहब बोले—"कागज़ात में लिखा है, ग्राहक ने शर्तें मानी थीं।"
आंसुओं की कीमत और जमीर की लड़ाई
महिला ने फोन पर रोते-रोते कहा, "बेटा, मैंने तुम पर भरोसा किया था। मैनेजर ने वादा किया था कि आज ही गद्दा आएगा, इसलिए पुराना गद्दा हटवा दिया। अब मेरे बीमार पति को बिना गद्दे के रहना पड़ेगा।" सोचिए, एक बीमार इंसान, जिसके पास ज़िंदगी के चंद दिन बचे हैं, और आखिरी सहूलियत भी छिन गई।
यह सुनकर हमारे नायक का खून खौल उठा। उन्होंने ऊपर तक आवाज़ पहुंचाई, CEO तक को संदेश भेज दिया—"कुछ कीजिए, नहीं तो..." CEO बोले, "गद्दा भेज सकते हैं, लेकिन नुकसान हो जाएगा।" अब भाई, इंसानियत का सवाल था, नायक ने CEO को कहा, "आप खुद फोन करके बता दीजिए।"
छोटे बदले की बड़ी मार
अब असली बदला शुरू हुआ। हमारे नायक अकेले कर्मचारी थे उस दुकान के। उन्होंने बिना बताए काम पर जाना बंद कर दिया। CEO ने फोन किया—"बेटा, आज नहीं आए, कल आ जाओगे?" जवाब मिला, "जी, बस थोड़ा बीमार हूँ। कल पक्का आऊँगा।" लेकिन अगले दिन भी वही हाल, और तीसरे दिन भी। CEO को समझ आ गया—बिना कर्मचारी के दुकान कैसे चलेगी? मजबूरन, उसे किसी और शहर से किसी को बुलवाना पड़ा, होटल का खर्चा उठाना पड़ा और दुकान कुछ दिन बंद रही।
एक कमेंटकर्ता ने चुटकी लेते हुए लिखा, "भैया, असली बदला तो तब होता जब गद्दा खुद उठा के बुज़ुर्ग महिला के घर पहुँचा देते।" इस पर कई लोगों ने जवाब दिया—"भाई, चोरी का इल्ज़ाम लग जाता, नौकरी गई सो गई, ऊपर से जेल भी जाना पड़ता!" खुद नायक (OP) ने भी माना, "काश ऐसा कर पाता, लेकिन कानून का डर था।"
पाठक की राय, गुस्सा और सहानुभूति
रेडिट पर इस कहानी पर खूब चर्चा हुई। किसी ने कहा, "आपका बदला तो ठीक है, लेकिन बुज़ुर्ग दंपती को गद्दा नहीं मिला, असली न्याय होता तो वो चैन से सो पाते।" कईयों ने सलाह दी—"ऐसे दुकानों की पोल खोलो, ऑनलाइन शिकायत करो!" लेकिन नायक ने संभलकर जवाब दिया, "ऐसा किया तो कानूनी पचड़े में फँस सकता हूँ।"
कुछ ने तो कहानी पर शक भी जताया—"भला एक साधारण कर्मचारी CEO को कैसे मैसेज कर सकता है?" इस पर नायक ने बताया, "हमारी कंपनी छोटी थी, ऊपर तक सीधा संपर्क था।" एक अन्य पाठक ने लिखा, "भले ही आपने गद्दा नहीं पहुँचाया, पर साहस दिखाया, बड़े साहब को सबक सिखाया।"
किसी ने तो मज़ाक में कहा, "कहानी में जितने छेद हैं, उतने तो स्विस चीज़ में भी नहीं होते!" मगर सच कहें तो, ऐसी घटनाएँ हमारे भारत में भी कम नहीं होतीं। कभी पीएनजी का सिलेंडर, कभी नया फ्रिज, कब तक आएगा, कब तक ग्राहक इंतज़ार करेगा—कितनी बार कंपनियाँ वादे तोड़ती हैं और ग्राहक को तकलीफ होती है।
आखिर में...
ये कहानी सिर्फ बदले की नहीं, जमीर और इंसानियत की है। आजकल की भागदौड़ और मुनाफाखोरी के जमाने में अगर कोई कर्मचारी बुज़ुर्ग के आंसुओं की कीमत समझे, तो वो असली हीरो है। गद्दा भले ही न पहुँचा, पर CEO को ये समझ आ गया कि इंसानियत से बड़ा कोई मुनाफा नहीं।
आप क्या सोचते हैं—क्या आप ऐसी स्थिति में होते तो क्या करते? कभी किसी कंपनी से इस तरह का धोखा मिला है? अपनी राय कमेंट में ज़रूर बताएँ। और हाँ, बुज़ुर्गों की दुआ लेना मत भूलिएगा—वरना कभी-कभी उनकी बद्दुआ भी भारी पड़ जाती है!
मूल रेडिट पोस्ट: That's what you get for making an old lady cry