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पिकलबॉल-गेट: जब स्कूल के केविन ने खेल को साजिश बना डाला!

स्कूल के दिनों में खेल-कूद का अपना ही मज़ा होता है – दोस्ती, मुकाबला, और कभी-कभी ऐसी अजीबोगरीब कहानियाँ जो ज़िंदगीभर याद रहती हैं। कुछ लोग खेल के मैदान में जीतने आते हैं, कुछ मस्ती करने, और कुछ... केविन जैसे, जो हर हार को ‘साजिश’ मान लेते हैं! आज की कहानी है पिकलबॉल केविन और उसके ‘पिकलबॉल-गेट’ की, जिसने स्कूल की दीवारों को हिला दिया।

पिकलबॉल का मैदान और केविन की अनोखी सोच

हर स्कूल में एक न एक ‘केविन’ ज़रूर होता है – वो इंसान जिसे लगता है सारी कायनात उसी के खिलाफ है! हमारे नायक (या कहें, लेखक) को स्कूल की नियमावली के अनुसार कोई खेल चुनना था, और उन्होंने पिकलबॉल चुन लिया। पिकलबॉल, हमारे देसी बैडमिंटन और टेनिस का कॉकटेल समझ लीजिए – छोटा कोर्ट, हल्की रैकेट, और मज़ेदार गेमप्ले।

खेल के जोड़ीदार रैंडम चुने जाते थे, और लेखक का साथ मिला केविन को – एक ऐसा लड़का जो खुद को पिकलबॉल का उभरता हुआ ‘प्रो’ मानता था। लेकिन केविन में धैर्य की उतनी ही कमी थी जितनी दिल्ली की गर्मी में ठंडी हवा की। उसे लगा कि नए खिलाड़ियों को सिखाना उसका काम नहीं; आखिरकार, “मैं ही अपना सबसे अच्छा साथी हूँ!” – ऐसी सोच थी उसकी।

स्कूल ने आदेश दिया, केविन को अपने साथी के साथ ही खेलना होगा, चाहे मन हो या न हो। लेकिन केविन ने तो ठान लिया था – “या तो मैं, या मेरी मर्जी!” नतीजा? मैदान में केविन अकेला खेलता, और लेखक को कोने में खड़ा छोड़ देता। लेकिन जैसे ही सर्व करने की बारी आई, लेखक को कुछ नहीं बताया गया था – नतीजा, हर बार एक अंक का नुकसान! हर मैच हारना तो तय ही था।

हार की साजिश और ‘पिकलबॉल-गेट’ का जन्म

अब यहां असली मसाला आया। हर हार के बाद, केविन ने स्कूल में ऐलान कर दिया कि “ये सब मेरे खिलाफ साजिश है!” – “मैं तो जीत गया था, लेकिन नियमों ने मुझे हरवा दिया!” हिंदी फिल्मों के विलेन जैसी नाटकीयता के साथ, केविन ने खुद को शिकार घोषित कर दिया। और तो और, उसने अपनी हार को ‘पिकलबॉल-गेट’ नाम दे डाला – जैसे कुछ बड़ा घोटाला हो गया हो!

एक कमेंट ने तो केविन की सोच पर जोरदार तंज कसा – “दूसरी टीम ने सिर्फ इसलिए धोखा किया क्योंकि उन्होंने ज्यादा अंक बनाए!” सोचिए, अगर क्रिकेट में कोई बल्लेबाज आउट होने के बाद बोले – “ये पिच मेरे खिलाफ थी, मैं तो असल में शतक बना चुका था!” – बस वैसी ही बात थी।

स्कूल की शिक्षा प्रणाली पर सवाल और कुछ हंसी-मजाक

कई पाठकों ने यह भी लिखा कि साथियों के भरोसे खेल सिखाना स्कूल की लापरवाही थी – “शिक्षक अगर खुद पढ़ाए न, तो बच्चों के लिए सीखना आसान होता है।” भारत में भी अक्सर देखा जाता है कि होनहार बच्चों को कमजोर छात्रों के साथ जोड़ दिया जाता है, ताकि वो सिखाएं – लेकिन इससे कई बार दोनों का ही नुकसान होता है। एक पाठक ने लिखा, “इसी वजह से कई बच्चे अपनी प्रतिभा छुपा लेते हैं, ताकि उन्हें ‘बेबीसिटर’ न बनना पड़े।”

और केविन की हरकतों पर हँसी का तड़का लगाने से कोई नहीं चूका – “जीवन में भी बस जीत की घोषणा कर दो, बाकी सब अपने आप हो जाएगा!” किसी ने तो मज़ाक में कहा, “केविन ज़रूर अब कोई पॉडकास्ट चलाता होगा, जिसमें वो हर हार को ‘साजिश’ बताता होगा!”

आखिरकार बदलाव और सीख

इस पूरे हंगामे के बाद, स्कूल को भी अपनी गलती समझ आई। अब पिकलबॉल के नए टूर्नामेंट में बच्चों को सिखाने के लिए शिक्षक मौजूद रहते थे, ताकि कोई और ‘केविन’ अपने साथी को कोने में खड़ा न छोड़ दे। और सबसे बड़ी सीख – हार को स्वीकार करना और दूसरों को साथ लेकर चलना ही असली खेल भावना है।

कहानी के लेखक को तो नहीं पता कि केविन का आगे क्या हुआ, लेकिन उम्मीद है कि उसने कहीं न कहीं ‘पिकलबॉल-गेट’ के बाहर भी ज़िंदगी में आगे बढ़ना सीखा होगा!

आपकी राय?

क्या आपके स्कूल या कॉलेज में भी ऐसा कोई ‘केविन’ रहा है, जिसे अपनी हार हमेशा सिस्टम की गलती लगती थी? या कभी आपने भी किसी खेल में सीखने के बजाय ‘बकरा’ बनना महसूस किया है? अपनी मजेदार यादें और अनुभव नीचे कमेंट में ज़रूर साझा करें – कौन जाने, अगली कहानी आपकी ही हो!

खेलते रहिए, हँसते रहिए, और हार-जीत को दिल पर मत लाइए – क्योंकि असली जीत तो साथ में हँसने-सीखने में है!


मूल रेडिट पोस्ट: pickleball Kevin spreads the word of pickleball-gate