डॉक्टर का टाइम नहीं, गुस्सा मुझ पर क्यों? – क्लिनिक रिसेप्शन पर रोज़ाना की जद्दोजहद
कभी-कभी लगता है कि हमारे देश में डॉक्टर के क्लिनिक की रिसेप्शन डेस्क ही असली रणभूमि है। जरा सोचिए – 40 से भी ज़्यादा फैमिली डॉक्टर, अनगिनत मरीज, और हर किसी के पास अपनी-अपनी "इमरजेंसी"! लेकिन इन सबके बीच, बीमारियों की नहीं, बल्कि धैर्य की असली परीक्षा तो रिसेप्शनिस्ट की होती है।
भारतीय क्लिनिकों में, रिसेप्शन पर बैठे व्यक्ति से उम्मीद की जाती है कि वो डॉक्टर, कंपाउंडर, और कभी-कभी तो खुद भगवान का रोल अदा करे! लेकिन क्या सचमुच ऐसा संभव है? आइए, आज हम इसी मुद्दे पर एक मज़ेदार और सच्ची कहानी के बहाने चर्चा करें।
"आपके डॉक्टर ने दवा नहीं बढ़ाई? मेरी क्या गलती है!"
क्लिनिक में काम करने वाले एक रिसेप्शनिस्ट का कहना है, "मुझे अपॉइंटमेंट बुक करने की जिम्मेदारी है, बाकी सब डॉक्टर के ऊपर है।" लेकिन मरीजों को लगता है कि रिसेप्शन पर बैठा बंदा सारी दुनिया की चाभी लेकर बैठा है!
एक बार तो एक परेशान मरीज ने गुस्से में बोल दिया – "मेरी दवा खत्म हो गई है, अब आप डॉक्टर को बुलाइए, अभी!"
भाई, डॉक्टर पूजा में बैठा है क्या, कि घंटी बजते ही बाहर आ जाएगा?
यहाँ एक कमेंट याद आता है – "हर बार डॉक्टर कहते हैं कि अगर दवा जल्दी खत्म हो जाए तो फोन कर लेना, हम रिफिल कर देंगे। लेकिन जब फोन करो तो रिसेप्शन पर जवाब मिलता है – 'पहले अपॉइंटमेंट लो, डॉक्टर बिज़ी हैं'।"
ये वही वाली बात हो गई – "मुंह में राम, बगल में छुरी।"
"बस दो मिनट लगेंगे!" – वो जुमला जो हर रिसेप्शनिस्ट सुनता है
अरे भाई, डॉक्टर कोई चाय पीने वाला दोस्त नहीं है कि लंच टाइम में बुला लिया।
एक कमेंट में किसी ने लिखा – "लोग कहते हैं – मेरी अपॉइंटमेंट बस पाँच मिनट की है, अभी कर दो।"
ये तो वही हुआ – "शादी में देर हो रही थी, दूल्हे ने बोला – बस माला ही तो पहननी है, दो मिनट लगेंगे!"
डॉक्टर के पास हर मरीज का समय बँटा होता है, और रिसेप्शनिस्ट को उसी अनुसार काम करना पड़ता है। ऊपर से जब तीसरा मरीज कहता है – "डॉक्टर मुझे जानते हैं, जल्दी बुला लो," तो रिसेप्शनिस्ट के चेहरे पर वही 'क्या करूँ, हँसू या रोऊँ' वाली मुस्कान आ जाती है।
"कृपया दया दिखाएँ – रिसेप्शनिस्ट भी इंसान हैं!"
आपने नोटिस किया होगा कि अब कई बड़ी कंपनियाँ फोन पर पहले ही बोल देती हैं – "हमारे कस्टमर केयर एजेंट्स आपकी सहायता करने के लिए हैं, कृपया उनसे विनम्रता से बात करें।"
सोचिए, हालात कितने बिगड़ गए होंगे कि यह चेतावनी देनी पड़ रही है!
एक वरिष्ठ कमेंटकार ने लिखा – "मैंने सालों तक आईटी में काम किया है, लोगों की हरकतें देख-देखकर अब मूर्खता का इलाज ही छोड़ दिया है!"
यानी, जब मरीज गुस्से या घबराहट में रिसेप्शनिस्ट पर चिल्लाते हैं, तो असल में वे अपनी हताशा निकाल रहे होते हैं। किसी ने सलाह दी – "मरीज की घबराहट को समझें, उन्हें तसल्ली दें, और बताएं कि जल्द मदद मिलेगी।"
"सिस्टम में गड़बड़ी कहाँ है?" – मरीज की भी अपनी परेशानी
सिर्फ रिसेप्शनिस्ट ही नहीं, मरीजों की भी अपनी मजबूरी होती है।
एक टिप्पणी में किसी ने लिखा – "कुछ दवाएँ ऐसी होती हैं, जिनकी एक डोज़ भी छूटी तो जान पर बन आती है। ऐसे में मरीज बेचैन हो जाते हैं।"
और सच पूछिए तो, हमारे यहाँ डॉक्टर और दवा की प्रक्रिया इतनी उलझी हुई है कि मरीज को पता ही नहीं चलता कि असल में करना क्या है। डॉक्टर बोलता है – "दवा मिल जाएगी," रिसेप्शनिस्ट कहता है – "पहले अपॉइंटमेंट लो," और मरीज बीच में फुटबॉल बन जाता है।
एक और कमेंट में कहा गया – "अगर दवा खत्म होने में दस दिन बाकी हों, तभी से फोन करना शुरू कर दो, ताकि वक्त रहते काम हो जाए।"
वैसे हमारे समाज में ये सलाह कई जगह लागू होती है – "शादी की खरीदारी हो या डॉक्टर का अपॉइंटमेंट, जितना जल्दी शुरू करो, उतना बेहतर!"
निष्कर्ष: रिसेप्शनिस्ट – झेलता भी, समझाता भी
आखिर में, रिसेप्शन डेस्क पर बैठा इंसान भी हमारी तरह ही इंसान है। वह न तो डॉक्टर से ऊपर है, न ही उसके पास जादू की छड़ी है। मरीजों की तकलीफ और घबराहट समझना ज़रूरी है, लेकिन रिसेप्शनिस्ट पर गुस्सा निकालना किसी की मदद नहीं करता।
तो अगली बार जब आप क्लिनिक जाएँ, रिसेप्शन पर बैठे भैया या दीदी को एक मुस्कान ज़रूर दें। हो सकता है, वही मुस्कान आपके काम में मदद कर जाए!
आपका क्या अनुभव रहा है क्लिनिक या अस्पताल में? अपनी कहानी नीचे कमेंट में जरूर साझा करें।
"डॉक्टर का टाइम नहीं, लेकिन आपकी मुस्कान में दम है!" – यही तो है असली हेल्थकेयर!
मूल रेडिट पोस्ट: I am not responsible for your health!!