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जब स्विस इंजीनियर्स ने बॉस को श्रम कानूनों का पाठ पढ़ाया: ऑफिस की घड़ी बनाम दिमाग की घड़ी

कार्यालय में काम के घंटे और अनुबंध पर चर्चा कर रहे विविध टीम का कार्टून 3D चित्रण।
इस जीवंत कार्टून-3D दृश्य में, एक विविध टीम नए प्रबंधन परिवर्तनों के बीच अपने काम के घंटों के प्रभावों पर चर्चा करने के लिए एकत्रित हुई है। यह आकर्षक दृश्य स्विट्जरलैंड, स्पेन और मेक्सिको में फैली टीमों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों और गतिशीलताओं को दर्शाता है।

ऑफिस में नया बॉस आया हो, तो अक्सर माहौल में एक अजीब सी हलचल आ जाती है। सबको लगता है कि अब कुछ तो बदलेगा—कभी अच्छा, कभी बुरा। लेकिन जब बदलाव सिर्फ दिखावे के लिए हो, तो कर्मचारियों का दिमाग चाय की प्याली सा खौल उठता है! आज की कहानी ऐसी ही एक आईटी टीम की है, जिनके मैनेजर ने अपनी जर्मन आदतों के साथ स्विट्ज़रलैंड में घुसपैठ की, पर यहां के लोग भी कम चतुर कहाँ!

बॉस की नई घड़ी: सब एक साथ, सब एक समय!

कहानी की शुरुआत होती है एक नए मैनेजर के आगमन से, जो जर्मनी से स्विट्ज़रलैंड के आईटी डिपार्टमेंट का नेतृत्व करने आए। शुरुआत में तो छोटे-मोटे बदलाव हुए—टिकट्स पर काम का समय लिखना, प्रोजेक्ट्स की रिपोर्टिंग बढ़ाना, और मीटिंग्स की आवृत्ति बढ़ाना। टीम ने भी सोचा, "चलो, बॉस है, थोड़ा बहुत तो चलेगा।" लेकिन असली तूफान तब आया, जब मैनेजर ने ऑफिस के काम के घंटे "सुधारने" की ठानी।

स्विट्ज़रलैंड और स्पेन की टीमों का समय तो एक ही है, पर काम करने का अंदाज़ अलग—यहाँ का स्टाफ सुबह 7 से 8:30 के बीच ऑफिस आ जाता, लंच जल्दी, घर जल्दी; उधर स्पेन वाले 9 बजे के बाद आते, देर से लंच करते, देर तक बैठते। मीटिंग्स का स्लॉट भी दोनों देशों की सुविधा से तय होता था—बस 4-5 घंटे सब साथ ऑनलाइन होते।

लेकिन बॉस को ये ‘आज़ादी’ हजम नहीं हुई। उन्होंने फरमान जारी किया—अब सबको 8 बजे से 5 बजे तक एक साथ काम करना है! टीम में तो बवाल मच गया। कोई बोला—"मेरे घर के काम बिगड़ जाएंगे", कोई बोला—"लंच छोटा करूं तो हफ्ते के घंटे ही ज़्यादा हो जाएंगे!" मैनेजर बोले—"देखेंगे, लेकिन सबको साथ रहना चाहिए।"

कानून की चालाकी: जलेबी सी उलझी शर्तें

अब कहानी में असली मसाला तब आया, जब टीम के एक सीनियर सदस्य ने पूछा—"क्या आपने HR से ये पॉलिसी क्लियर की है?" और जब जवाब मिला "नहीं", तो उन्होंने अगला तीर छोड़ा—"क्या अब हमें अपने घंटे रिकॉर्ड करने होंगे?" मैनेजर ने फिर गोल-मोल जवाब दिया।

यहाँ स्विट्ज़रलैंड का श्रम कानून रंग लाया। वहाँ, कर्मचारियों को अपने काम के घंटे रिकॉर्ड करने होते हैं, लेकिन एक छूट है—अगर आप सीनियर हैं, अच्छी सैलरी है और अपनी मर्ज़ी से 50% वक्त तय कर सकते हैं, तो आपको छूट मिल सकती है। सब इंजीनियर्स ने यही छूट ले रखी थी। कभी 11 घंटे काम, कभी 5 घंटे; कभी 30 घंटे हफ्ते में, कभी 50 घंटे—बिल्कुल देसी अंदाज में ‘अपना काम, अपनी मर्ज़ी’!

लेकिन बॉस के नए नियम से 100% घंटे फिक्स हो गए—यानि कानून की छूट गई हवा में! अब या तो सब घंटे रिकॉर्ड करो, या कंपनी पर जुर्माना लगे, या छूट ही खत्म हो जाए। टीम के उसी सदस्य ने HR को खबर कर दी। HR ने तुरत-फुरत डायरेक्टर को बताया, और बॉस की नई नीति एक ही दिन में ठंडे बस्ते में चली गई।

टीम का जवाब: "अब देखो, हमारी चाल!"

हफ्ते के आखिरी दिन, बॉस ने माफी माँगी—"मुझे लोकल कानून पता नहीं था, अब नई पॉलिसी लाते हैं।" अब स्विट्ज़रलैंड टीम के लिए 50% घंटे फिक्स: सुबह 8-10 और शाम 3-5। बाक़ी घंटों में ‘आपकी मर्ज़ी’। अब टीम ने भी देसी जुगाड़ दिखाया—कोई सुबह 6 बजे से काम शुरू करके 10 बजे के बाद गायब, कोई दोपहर को झील में नाव ले गया, कोई घर से जल्दी निपटा, कोई लंच में दो घंटे की छूट्टी मना ली!

सोमवार आते-आते, बॉस की चाल उन्हीं पर भारी पड़ गई—क्योंकि टीम ने ऐसे शेड्यूल बना लिए कि बाकी समय में ‘गायब’ ही रहे। अगले ही दिन, दोनों देशों के लिए फिक्स घंटे की नीति खत्म! और कुछ महीनों बाद, बॉस ने ही कंपनी को अलविदा कह दिया।

कमेंट्स की महफ़िल: हरियाणवी तड़का, देसी व्यंग्य

रेडिट पर भारतीयों की तरह मज़ेदार टिप्पणियाँ आईं—"हर नया मैनेजर आता है, तो बदलाव के नाम पर कुछ उल्टा-पुल्टा करता है, बस अपनी धाक जमाने के लिए!" एक ने कहा, "बिना होमवर्क किए ऐसे नियम बनाना, जैसे बिना रेसिपी का हलवा बनाना—ना स्वाद, ना रंग!" एक और ने लिखा, "इंजीनियर्स ने तो गजब ही कर दिया—बॉस को उसकी ही चाल में फंसा दिया!"

कुछ ने हँसी में कहा, "स्विट्ज़रलैंड में काम करना है तो अपने नियमों के साथ चलना आए!" तो किसी ने दार्शनिक अंदाज में जोड़ा, "कंपनी को काम की चिंता कम, कंट्रोल की ज़्यादा थी—पर यहाँ कानून ने कर्मचारियों की सुनी।"

सीख और अंत: बॉस भी इंसान है, कानून की किताब भी!

कहानी हमें यही सिखाती है—ऑफिस में बदलाव लाने से पहले, टीम के लोगों और लोकल नियमों की इज़्ज़त करनी चाहिए। "ऊपर से आए फरमान" हमेशा सही नहीं होते। भारत के ऑफिसों में भी कितनी बार नए बॉस ‘डेडलाइन’ और ‘फिक्स्ड टाइमिंग’ के नाम पर बवाल मचाते हैं, पर असल में कर्मचारियों की आत्मा तो ‘फ्लेक्सिबल’ ही रहती है!

तो अगली बार जब आपका बॉस भी ‘नई पॉलिसी’ लाए, तो जरा अपने कॉन्ट्रैक्ट और कानून की किताब ज़रूर देख लेना—कौन जाने, जीत आपकी ही हो!

आपके ऑफिस में भी ऐसा कुछ हुआ है? कमेंट में सुनाइए अपनी कहानी—शायद अगली पोस्ट आपकी हो!


मूल रेडिट पोस्ट: You want to fix our working hours? Our contracts have something to say about that...