जब सुपरवाइज़र ने कहा – 'फोन ही सबसे ज़रूरी हैं', फिर देखिए क्या हुआ!
ऑफिस की दुनिया में हर रोज़ कुछ न कुछ नया होता है, लेकिन कभी-कभी जो बदलाव आते हैं, वो पुराने सेटअप की ऐसी-तैसी कर देते हैं। आपने सुना होगा – “जो चीज़ सही चल रही हो, उसमें टांग मत अड़ाओ!” लेकिन कुछ लोग अपनी नई कुर्सी पर बैठते ही खुद को सिंघम समझने लगते हैं।
आज की कहानी भी एक ऐसे ही सुपरवाइज़र की है, जिसने ऑफिस का सारा खेल ही पलट दिया – और फिर खुद ही फंस गई।
सुपरवाइज़र का नया फरमान: "फोन ही सब कुछ हैं!"
तो हुआ यूं कि एक महिला, जो बॉस की खास दोस्त थी (और गाहे-बगाहे उसे रिश्तों की सलाह भी देती थी), अचानक सुपरवाइज़र बन गई। पुराने कर्मचारियों की मानें तो उसका प्रमोशन योग्यता से ज़्यादा 'जान-पहचान' पर था। वैसे, हमारे यहाँ भी अक्सर सुनने को मिलता है – 'सिफारिश बड़ी चीज़ है भाई!'
इस ऑफिस में पिछले तीस साल से काम का एक बढ़िया सिस्टम था – कोई बॉस सिर पर खड़ा नहीं रहता था, सब मिल-जुलकर फोन, ईमेल, टिकट और प्रिंटर जॉब्स संभाल लेते थे। न कोई टारगेट्स की धमकी, न बेवजह के मीटिंग्स, बस काम और चैन।
लेकिन नई सुपरवाइज़र ने आते ही "Accountability" का झंडा उठाया और बोली, "अबसे सबकी परफॉर्मेंस फोन कॉल्स के हिसाब से नापी जाएगी।" जब कर्मचारियों ने पूछा – "और ईमेल, टिकट वगैरह?" तो जवाब मिला, "वो तो ट्रैक ही नहीं कर सकते, इसलिए सिर्फ फोन मायने रखता है!"
कर्मचारियों की 'मालिशियस कंप्लायंस': जैसा कहा, वैसा ही किया
अब आप सोच रहे होंगे कि फिर क्या हुआ? भाई, जैसा सुपरवाइज़र ने कहा, कर्मचारियों ने वैसा ही किया। फोन बजा? झट से उठाओ। ईमेल लिख रहे हो? छोड़ो, पहले फोन! टिकट सुलझा रहे हो? छोड़ो, पहले फोन!
नतीजा ये हुआ कि ऑफिस का ईमेल इनबॉक्स भरने लगा, टिकट्स धूल खाने लगे, और प्रिंटर के सामने कागज़ों का पहाड़ लग गया। बाकी विभागों और क्लाइंट्स से फोन और मेल आने लगे – "भाई, कोई है भी वहाँ? हमारा काम कब होगा?" एक बंदा तो खुद चलकर पूछने आ गया कि उसका ईमेल अभी तक क्यों नहीं देखा गया!
कम्युनिटी की टिप्पणियाँ: 'गांव में नाई, शहर में डॉक्टर!'
रेडिट पर इस किस्से पर लोगों ने खूब मसाला डाला। एक यूज़र ने लिखा, "ये तो हर जगह की कहानी है – बॉस का खास बनो, प्रमोशन पाओ!" दूसरे ने तंज कसा – "जो काम करता है, वही पिछड़ता है, और जो बॉस का चहेता है, वही सुपरवाइज़र बन जाता है।"
एक कमेंट में 'पीटर प्रिंसिपल' का ज़िक्र आया – मतलब, लोग अपनी योग्यता से ऊपर प्रमोट हो जाते हैं, और फिर गड़बड़ घोटाला शुरू! एक और यूज़र ने मज़ेदार बात कही – "जैसे ही मैनेजमेंट सिर्फ एक चीज़ मापना शुरू करता है, लोग बस उसी पर ध्यान देने लगते हैं, बाकी काम लटक जाता है।"
किसी ने Goodhart’s Law का भी हिंदीकरण किया – "जब किसी चीज़ को नापने की कोशिश करो, लोग बस उसे ही दिखाने लगते हैं, असली काम पीछे रह जाता है।"
एक यूज़र ने तो अपने एक्सपीरियंस शेयर करते हुए कहा – "हमारे यहाँ भी एक बार परफॉर्मेंस ईमेल गिनकर मापी जाने लगी। सबने एक ही बात तीन-तीन ईमेल में भेजनी शुरू कर दी! कस्टमर परेशान, और मैनेजमेंट खुश। कुछ हफ्तों में वो नीति भी अलविदा हो गई।"
'उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे': जब सुपरवाइज़र ने पलटी मारी
अब असली मज़ा तो तब आया, जब सब ओर से शिकायतें मिलने लगीं। सुपरवाइज़र को बॉस ने मीटिंग में बुलाया, और बाहर आते ही सुपरवाइज़र ने सबको ऑफिस टीम्स पर मैसेज भेजा – "कृपया याद रखें, सारे काम ज़रूरी हैं, सिर्फ फोन नहीं।"
वाह! जैसे गली के नुक्कड़ पर लड़ाई के बाद दोनों पक्षों में चुप्पी छा जाती है, वैसे ही ये 'परफॉर्मेंस ट्रैकिंग' पॉलिसी भी खामोशी से दफन हो गई। सब फिर से पुराने ढर्रे पर आ गए – मिलजुलकर, जैसे सालों से करते आ रहे थे।
कुछ कर्मचारियों की मानें तो, "नई मैनेजमेंट जबरदस्ती कुछ बदलने की कोशिश करती है, फिर खुद ही बवाल देखकर हाथ जोड़ लेती है।" एक यूज़र ने तो यहीं तक कह दिया – "भैया, काम करने दो, फालतू के बदलाव मत लाओ, वरना न घर का रहोगे, न घाट का!"
निष्कर्ष: 'जो चलता है, उसे चलने दो!'
इस पूरी कहानी में एक सीख छुपी है – ऑफिस में भरोसे और टीमवर्क से बेहतर सिस्टम कोई नहीं। जब सब सही चल रहा हो, तो सिर्फ दिखावे के लिए कुछ नया थोपना उल्टा पड़ सकता है।
अब आप ही बताइए – क्या आपके ऑफिस में भी कभी ऐसा 'सुपरवाइज़र साहब' आया है, जिसने सबकी शांति भंग कर दी? या कोई मज़ेदार अनुभव हो, तो नीचे कमेंट में ज़रूर साझा करें।
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मूल रेडिट पोस्ट: Supervisor says phones are all that matter. Okay then!