जब मास्टरजी ने छात्रों को दिखाया 'पेटी रिटायरमेंट' का असली मतलब
स्कूल की घंटी बजी, बच्चे भागते-झूमते क्लास में घुसे और मास्टरजी—जिन्हें सब आदर से ‘सर’ कहते हैं—अपनी कुर्सी पर बैठकर मुस्कुरा दिए। लेकिन इस बार उनके चेहरे पर कुछ अलग था। शायद सुकून, शायद हल्की सी शरारत, या फिर दोनों। आखिर, तीन दशक की मेहनत के बाद, मास्टरजी ने जो फैसला लिया, वो आम नहीं था—उन्होंने "पेटी रिटायरमेंट" ले ली!
अब भला ये पेटी रिटायरमेंट क्या बला है? और हमारे मास्टरजी ने ऐसा क्यों किया? चलिए, आपको सुनाते हैं ये दिलचस्प दास्तान, जिसमें मिर्च-मसाला, तड़का और देसी मसखरी सब कुछ है!
पेटी रिटायरमेंट: जब धैर्य की डोर टूट जाती है
आपने सुना होगा—“अति सर्वत्र वर्जयेत।” यानी कोई भी चीज़ हद से ज़्यादा हो जाए, तो नुकसान ही करती है। हमारे मास्टरजी, जो 30 साल से सामाजिक विज्ञान पढ़ा रहे थे, अचानक एक दिन स्कूल बैग समेटने लगे। वजह? एक तो उनकी सेहत—ऑटोइम्यून बीमारी ने पहले ही परेशान कर रखा था, ऊपर से इस साल के नवमीं के बच्चों की तो बात ही मत पूछिए!
मास्टरजी बताते हैं, “पहले मैं मेडिकल रिटायरमेंट लेने वाला था, लेकिन दवाइयों से थोड़ा कंट्रोल था, तो सोचा एक साल और सही। लेकिन इस साल के बच्चे तो जैसे मोबाइल पर ही पले-बढ़े हैं! न ध्यान, न अनुशासन, न बात मानना। और मेरी सहनशक्ति भी अब वैसी नहीं रही।”
कई बार हमें अपने मन और शरीर की सुननी पड़ती है, वरना हम खुद ही अपनी बर्बादी की कहानी लिख देते हैं। मास्टरजी ने समझदारी दिखाते हुए, एडमिनिस्ट्रेशन को बता दिया—“त्रैमासिक के बाद मैं नहीं आऊंगा। थैंक्सगिविंग के बाद बस, टाटा!”
छात्रों की शरारतें, मास्टरजी की चालाकी
अब असली मज़ा तो तब आया जब मास्टरजी ने अपनी क्लास के सबसे ‘शरारती’ बच्चों के सामने अपने पर्सनल सामान समेटने शुरू कर दिए। क्लास में हलचल मच गई—“सर, क्या आप छोड़ रहे हैं?” मास्टरजी ने मुस्कुरा कर कहा, “हां बेटा, अब मुझे अपनी सेहत का ख्याल रखना है।” कहीं न कहीं, ये इशारा था कि अब वो बच्चों की शरारतों से ऊपर उठ चुके हैं।
एक कमेंट में किसी ने लिखा, “सर, कल एक पॉप क्विज़ दे दो, ताकि बच्चों को याद रहे कि किसकी वजह से आप जा रहे हो!” लेकिन मास्टरजी बड़े दिलवाले, उन्होंने अच्छे छात्रों को स्पेशल नोट्स लिखकर उनके प्रति अपना स्नेह जताया। ये है असली गुरु का धर्म—बुराई पर जीत, भले ही वो चुपचाप हो।
बदलती पीढ़ी, बदलता समय
मास्टरजी की कहानी में एक बड़ा मुद्दा छुपा है—बदलती पीढ़ी की सोच और तकनीक की लत। कई शिक्षकों का कहना है कि आज के बच्चे बिना मोबाइल—आईपैड के एक पल भी नहीं रह सकते। स्कूल ने मोबाइल बैन भी किया, फिर भी बच्चों का ध्यान बँटा ही रहता है।
एक कमेंट में एक और टीचर ने दिल से कहा, “अब के बच्चे दो पीढ़ी से मोबाइल पर पल रहे हैं, न ध्यान टिकता है, न जल्दी काम करते हैं। हर काम में spoon-feeding चाहिए।”
हमारे देश में भी यही हाल है—आजकल के बच्चों को दादी-नानी की कहानियाँ कम, और मोबाइल-वीडियो ज्यादा याद रहते हैं। लेकिन जिम्मेदारी सिर्फ बच्चों की नहीं, समाज और अभिभावकों की भी है। शिक्षक भी इंसान हैं, उनकी भी सीमाएँ होती हैं।
रिटायरमेंट का असली सुख: खुद के लिए जीना
मास्टरजी ने अपने फैसले पर कोई पछतावा नहीं जताया। बल्कि उन्होंने तो आगे की योजना भी बना रखी है—ऑनलाइन क्लासेस, एड.डी की पढ़ाई, और कॉलेज में पार्ट-टाइम टीचिंग। उन्होंने कहा, “अब मैं अपने स्वास्थ्य, मानसिक शांति और आत्म-संतोष को प्राथमिकता दूँगा।”
एक पाठक ने बड़ी प्यारी बात कही—“सर, आपने सही समय पर ‘call it a day’ कर लिया। खुद को खोने से बेहतर है, समय रहते विदा ले लें।”
कई लोगों ने मास्टरजी को शुभकामनाएँ दीं—“अब घड़ी की सुई की चिंता छोड़िए, जिन्दगी खुलकर जीएँ। किताबों की TBR लिस्ट पूरी कीजिए, घूमिए-फिरिए, और असली रिटायरमेंट का मज़ा लीजिए!”
अंत में: क्या हमें भी कभी ‘पेटी रिटायरमेंट’ लेनी चाहिए?
मास्टरजी की कहानी सिर्फ शिक्षकों या छात्रों की नहीं, हर उस इंसान की है जो अपनी सीमाएँ जानता है और सम्मान के साथ विदाई लेता है। कभी-कभी, ‘छोटी सी बदला’ (petty revenge) भी बहुत बड़ी राहत और आत्म-सम्मान दे जाती है।
तो अगली बार ऑफिस में, स्कूल में या घर पर कोई आपकी सहनशक्ति की परीक्षा लेने की कोशिश करे, तो याद रखिए—कभी-कभी ‘पेटी रिटायरमेंट’ भी बड़ी समझदारी होती है।
आपका क्या ख्याल है? क्या आपने भी कभी ऐसी ‘पेटी रिटायरमेंट’ ली है या लेने का मन बनाया है? कमेंट में जरूर बताएँ, और अगर आपको ये कहानी पसंद आई हो, तो दोस्तों के साथ शेयर करना मत भूलिए!
जिंदगी लंबी है, लेकिन सुकून से जीना उससे भी ज्यादा जरूरी है।
धन्यवाद, और मास्टरजी को सलाम!
मूल रेडिट पोस्ट: Can you pettyretire?