जब मेरी घूरती नज़रों ने लिफ्ट में मोबाइल चलाने वालों को सबक सिखाया
क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आप सार्वजनिक जगह पर खड़े हों और कोई सामने वाला शख्स ऐसे बर्ताव करे जैसे बाक़ी सबकी कोई परवाह ही न हो? मेट्रो, ट्रेन, या लिफ्ट में मोबाइल पर तेज़ आवाज़ में बात करना, टिकटॉक वीडियो की आवाज़ से माहौल खराब करना – इन सबने तो जैसे आजकल की सभ्यता की धज्जियाँ उड़ा दी हैं! पर क्या करें, हर किसी से बहस करना भी तो मुमकिन नहीं। ऐसे में एक अजीब लेकिन मज़ेदार तरीका है – बस घूर दो! वो भी ऐसी नज़रों से कि सामने वाला खुद ही अपनी हरकत पर शर्मिंदा हो जाए।
भीड़-भाड़ वाले देश में अनुशासन ढूँढना किसी खजाने से कम नहीं
हमारे देश में भीड़-भाड़ तो आम बात है। लाइन में लगने पर ‘काटने’ वालों से लेकर बस-ट्रेन में तेज़ मोबाइल स्पीकर बजाने वालों तक, हर जगह अपना ही राग अलापने वाले लोग मिल जाते हैं। ऐसे माहौल में शांति और अनुशासन ढूंढना मानो चांद पर पानी खोजने जैसा है।
रेडिट पर एक यूज़र (u/shmulzi) ने अपनी कहानी साझा की – “मेरे देश में तो हाल ही बेहाल है। लाइन में कोई पीछे से घुस जाता है, ट्रेन और लिफ्ट में लोग बिना संकोच मोबाइल स्पीकर पर बातें करते हैं, वीडियो देखते हैं। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं।” अब रोज-रोज लड़ना-झगड़ना भी सही नहीं, तो जनाब ने अपनाया अपना ‘खतरनाक घूरना’ वाला हथियार!
घूरना – जब शब्द कम पड़ जाएँ तो नज़रों की तलवार काम आती है
अब सोचिए, लिफ्ट में आप चुपचाप खड़े हैं और किसी ने फोन निकालकर ज़ोर-ज़ोर से बात शुरू कर दी। इस पर OP (u/shmulzi) बताते हैं – “मैं ऐसे लोगों को इस तरह घूरता हूँ, जैसे उन्होंने मेरे सामने किसी बेबस कुत्ते को लात मार दी हो। जब उनकी मेरी आँखों से नज़र मिलती है, तो उनके चेहरे पर शर्म की एक हल्की-सी लहर आ जाती है।”
इस पोस्ट पर किसी ने कमेंट किया, “कभी-कभी एक तीखी नज़र शब्दों से ज्यादा असरदार होती है।” एक और यूज़र ने मज़ाकिया अंदाज़ में लिखा, “अगर नज़रों में जान होती, तो सामने वाला यहीं लिफ्ट में गिर जाता!”
हमारे यहाँ भी अक्सर लोग ऐसे घूरने का सहारा लेते हैं – जैसे बाज़ार में कोई दादी जी किसी को लाइन तोड़ते देख लें, तो वो ऐसी ‘नज़र’ डालती हैं कि खुद लाइन तोड़ने वाला भी दोबारा सोचने लगे!
क्या मोबाइल का रेडिएशन वाकई डरावना है या बस एक भ्रांति?
OP ने एक और दिलचस्प बात कही – “हमारे यहाँ लिफ्ट में ‘नो मोबाइल’ के बोर्ड लगे हैं, क्योंकि माना जाता है कि लिफ्ट में मोबाइल का रेडिएशन बढ़ जाता है।” लेकिन इसपर किसी और यूज़र ने जवाब दिया, “रेडिएशन की बात छोड़िए, असल समस्या तो तेज़ आवाज़ और दूसरों की निजता का हनन है।” एक ने तो यहाँ तक कह दिया, “मोबाइल का रेडिएशन उतना ही हानिकारक है, जितना बल्ब की रोशनी तेज़ हो जाने से नुकसान होता है!”
हमारे समाज में भी कई बार तकनीकी मिथकों को लेकर डर बैठा रहता है – जैसे कभी-कभी लोग माइक्रोवेव ओवन के पास खड़े होने से डरते हैं। असल में, समस्या तकनीक कम और लोगों की आदतें ज्यादा होती हैं।
शर्म दिलाना – कभी-कभी हमारे पास यही हथियार होता है
कमेंट्स में किसी ने बहुत सही कहा – “अगर कोई वेटर या दुकानदार ग़लत बर्ताव करे, तो सिर्फ़ एक घूरना ही काफी है। कई बार शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती, नज़र ही काम कर जाती है।” एक और यूज़र ने लिखा, “जर्मनी में तो इसे ‘जर्मन स्टेयर’ कहते हैं – कुछ न बोलो, बस घूरो और सिर हिलाओ।”
हमारे यहाँ भी कुछ ऐसा ही है – जैसे स्कूल में टीचर की ‘डाँटती नज़र’, या माता-पिता की ‘कड़क घूरन’। कई बार बच्चे इन नज़रों से ही समझ जाते हैं कि अब शरारत बंद करनी है।
निष्कर्ष: क्या घूरना सही है? या बस एक छोटी-सी बदला लेने की आदत?
हर किसी की सहनशक्ति अलग-अलग होती है। कोई कहता है – “भाई, लिफ्ट में दो मिनट की कॉल से किसी का क्या जाएगा!” तो किसी को लगता है – “सार्वजनिक जगह पर दूसरों के आराम का भी तो ध्यान रखो।” तो सवाल यही है – क्या ऐसी तीखी नज़रों से लोगों को सुधारा जा सकता है?
मेरे हिसाब से, जब तक किसी की निजता या भावनाएँ आहत न हों, और बिना किसी गाली-गलौच या झगड़े के, अगर घूरने से सामने वाला थोड़ा सा ‘शर्मिंदा’ हो जाए और आगे से सुधर जाए – तो इसमें बुराई क्या है? आखिरकार, समाज में सभ्यता बनाए रखने के लिए कभी-कभी ऐसी ‘मूक चेतावनी’ भी ज़रूरी है।
आपका क्या कहना है? क्या आपने कभी ऐसे किसी अनुशासनहीन इंसान को अपनी नज़रों से शर्मिंदा किया है? या आपको ऐसा घूरा गया है? अपने अनुभव कमेंट में जरूर साझा करें – शायद आपकी कहानी से भी किसी को थोड़ी ‘संस्कार की रोशनी’ मिल जाए!
मूल रेडिट पोस्ट: I love to stare at people angrily for being unruley