जब 'मदद नहीं करूँगा' ने ऑफिस को सिखाया असली सबक
हमारे देश के दफ्तरों में एक कहावत है – "जहाँ काम होता है, वहाँ जुगाड़ चलता है।" लेकिन जब ऑफिस की नीतियाँ ही जुगाड़ के खिलाफ हो जाएँ, तो क्या हो? आज की कहानी बिलकुल इसी पर है – और यकीन मानिए, ये कहानी हर IT या ऑफिस कर्मचारी के दिल के बहुत करीब है।
कभी-कभी ऑफिस में ऐसे फरमान आते हैं कि सुनकर लगता है, "भई, ये तो चूहे को दूध का पहरेदार बनाने जैसा है!" एक रिटायर्ड सॉफ्टवेयर डेवेलपर की कहानी वायरल हो रही है, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे एक छोटी-सी "मालिशियस कम्प्लायंस" (यानी आदेश मानना, लेकिन अंदाज ऐसा कि सामने वाले को खुद ही पछताना पड़े) ने पूरे ऑफिस की आँखें खोल दीं।
"हमारी मदद की ज़रूरत किसे है?" – जब नीतियाँ बनती हैं, ज़मीन की हकीकत भूल जाती हैं
ये जनाब एक इंजीनियरिंग फर्म में सॉफ्टवेयर डेवेलपर थे। उन्होंने कंपनी के लिए एक नया डिजिटल सिस्टम बनाया, जिससे आर्किटेक्चरल ड्रॉइंग्स का ट्रैकिंग आसान हो गया। जैसा हर नए सिस्टम के साथ होता है, शुरुआत में लोगों को समझने में दिक्कत होती है। मदद के लिए सब सीधा इन्हें कॉल करने लगे, क्योंकि कंपनी का हेल्पडेस्क बस नाम का था – न ट्रेनिंग, न जानकारी।
अब यहाँ हमारे देश के दफ्तरों की तरह ही – "कागज़ी गेंदा और असली कामचोर" – ये हेल्पडेस्क बस ऊपर-ऊपर था, असल में कोई मदद कर नहीं सकता था। लेकिन मैनेजमेंट ने फरमान सुना दिया – "अब से कोई भी सीधा डेवेलपर साहब को कॉल नहीं करेगा, सब हेल्पडेस्क पर जाएँ।" पहले तो इन्होंने अनदेखा किया, लेकिन जब दबाव बढ़ा, तो जनाब ने आदेश मान लिया। नतीजा? तीन दिन में सारे यूज़र बुरी तरह परेशान!
"तीन दिन बाद सबकी बोलती बंद" – आदेश मानना, लेकिन अंदाज ऐसा कि सबक मिल जाए
तीन दिन में जब यूज़र्स को मदद नहीं मिली, तो ऑफिस में अफरा-तफरी मच गई। सबको समझ आ गया कि असली मदद तो उन्हीं डेवेलपर साहब से मिल सकती है, हेल्पडेस्क तो बस "कुर्सी गरम" करने आया है। आखिरकार मैनेजमेंट को अपनी गलती समझ आ गई। जल्द ही फिर से कॉल्स उन्हीं के पास आने लगीं, और इस बार बाकायदा वक्त निकालकर हेल्पडेस्क को ठीक से ट्रेनिंग भी दिलवाई गई।
यहाँ एक कमेन्ट में किसी ने लिखा, "भई, ये तो वही हो गया – जब तक खुद के सिर न पड़े, तब तक दिक्कत दिखती ही नहीं!" एक और मज़ेदार कमेन्ट में किसी ने तंज कसा, "इतने बड़े-बड़े मैनेजर, लेकिन ज़मीनी दिक्कतों से ऐसे अनजान जैसे गाँव के प्रधान को एप्पल लैपटॉप पकड़ा दो!"
"कम्युनिकेशन की कमी – ऑफिसों की पुरानी बीमारी"
इस कहानी पर बहुत लोगों ने अपने अनुभव भी साझा किए। एक पाठक ने लिखा, "हमारे यहाँ सालों तक यही होता रहा – सिस्टम एडमिन कुछ नया बना देते, और हेल्पडेस्क को कोई जानकारी ही नहीं। नतीजा, फालतू की परेशानियाँ!" किसी ने तो यहाँ तक कहा, "कंपनी में हफ्ते में एक बार सब टीमों की मीटिंग शुरू हुई – तब जाकर हालात सुधरे।"
एक और कमेन्ट में किसी ने अपने ऑफिस का किस्सा बताया – "टेक टीम ने केबल्स को ऐसे बाँध दिया जैसे शादी में मिठाई की डिब्बे बांधते हैं। किसी ने ज़िप टाई काट दी तो ऊँचे साहब ने शिकायत कर दी और पूरे ऑफिस में नोटिस निकल गया।" फिर क्या, छोटी-छोटी दिक्कतों पर टेक टीम को बुलाना पड़ा, और दो दिन में सबको समझ आ गया कि बिना ज़रूरत के नियम बनाना कितना भारी पड़ सकता है।
"कभी-कभी सबक सीखना जरूरी होता है" – अनुभव से बढ़कर कोई शिक्षक नहीं
कई बार, मैनेजमेंट को अपने आदेशों की असलियत तभी समझ आती है जब वो खुद फँसते हैं। जैसे एक कमेन्ट में कहा गया, "मालिकों को जब तक अपनी ही नाक पर चोट न लगे, उन्हें समझ ही नहीं आता कि नीचे वाले कितना झेल रहे हैं।"
OP खुद कहते हैं – "मुझे यूज़र्स की मदद करना सबसे अच्छा लगता था। लेकिन जब तक मैनेजमेंट ने खुद महसूस नहीं किया, उन्हें मेरी अहमियत समझ नहीं आई।" ये बात हर जगह लागू होती है – चाहे वो दिल्ली का कोई सरकारी दफ्तर हो, या मुंबई की कोई मल्टीनेशनल कंपनी।
निष्कर्ष: ऐसे किस्से हर ऑफिस में होते हैं, आप के यहाँ भी?
तो मित्रों, इस कहानी से सीधा सा सबक है – "नीतियाँ बनाने से पहले ज़मीन की हकीकत समझो, और असली काम करने वालों की कद्र करो।" डेस्क पर बैठकर बनाए गए नियम अक्सर फील्ड की सच्चाई से कोसों दूर होते हैं। और जब दिक्कते बढ़ती हैं, तो वही पुराने अनुभवी लोग ही सही राह दिखाते हैं।
अब आप बताइए – क्या आपके ऑफिस में भी कभी ऐसे आदेश आए हैं, जिनका नतीजा उल्टा ही पड़ा? या आपने कभी "मालिशियस कम्प्लायंस" करके मैनेजमेंट को उनकी गलती का अहसास कराया? अपने अनुभव हमारे साथ ज़रूर साझा करें, ताकि और लोग भी सीख सकें – और हँसी-ठहाके भी लगें!
सुनते रहिए ऐसी और मज़ेदार कहानियाँ – क्योंकि ऑफिस की दुनिया भी किसी मसालेदार फिल्म से कम नहीं!
मूल रेडिट पोस्ट: Okay then, I won't help