जब 'बॉस बेब' बनी सिरदर्द: मानसिक स्वास्थ्य क्लिनिक की एक छोटी सी बदला-गाथा
किसी भी दफ्तर या अस्पताल में नए लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है। कुछ लोग आते हैं, सीखते हैं और टीम का हिस्सा बन जाते हैं। मगर कभी-कभी कोई ऐसी शख्सियत भी आ जाती है, जिसे देख कर बाकी सबके माथे पर बल पड़ जाते हैं। आज की कहानी कुछ ऐसी ही एक 'बॉस बेब' के इर्द-गिर्द है, जिसने अपने बेतुके और बदतमीज़ रवैये से सबको परेशान कर रखा था — मगर आखिर में उसे मिली एक बड़ी प्यारी सी 'पेट्टी रिवेंज'!
नई इंटर्न, बड़े नखरे: जब अनुभव हारा, तो सब्र भी टूटा
कहानी शुरू होती है एक मानसिक स्वास्थ्य क्लिनिक से, जहां लेखक कई सालों से काम कर रहे हैं। हाल ही में यहां एक नई इंटर्न आई — उम्र छोटी, मगर अकड़ बड़ी! उसे न तो अपने सीनियर का लिहाज, न ही नियम-कायदों की परवाह। मरीज़ों को खाना देने में बिना दस्ताने, बिना हाथ धोए, और तो और, अपने से बड़ों के साथ बदतमीज़ी से पेश आना उसका रोज़ का काम।
हमारे लेखक ने तो बड़े सलीके से उसे अकेले में समझाया भी, "देखो, ये तरीका बहुत ही गंदा और गलत है, बाकी लोग होते तो अब तक तुम्हें खूब डांट चुके होते।" मगर लगता है, बहनजी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी!
'ड्यूटी' के नाम पर आलस, और जिम्मेदारी से भागना
क्लिनिक में एक नियम है — दरवाज़े पर हर समय एक स्टाफ ज़रूर बैठता है, ताकि मरीज़ कौन बाहर जा रहा, कौन अंदर आ रहा, सब पर नज़र रहे। ये काम थोड़ा बोरिंग ज़रूर है, मगर ज़रूरी भी। मगर जब भी लेखक ने इस 'बॉस बेब' से कहा, "जरा दो मिनट मेरी जगह बैठ जा, मुझे वाशरूम जाना है," तो हर बार कोई न कोई बहाना! "अभी तो मुझे ब्रेड पर बटर लगाना है," और गायब हो जाती पंद्रह-बीस मिनट के लिए! अरे, दो स्लाइस ब्रेड में बटर और चॉकलेट लगाने में इतना वक्त लगता है क्या? या फिर बहनजी कामचोर हैं — ये आप खुद तय करिए।
इस पर एक कमेंट करने वाले ने चुटकी ली, "काश, बदला ये होता कि उसे नौकरी से निकाल दिया जाता!" लेखक ने भी जवाब में कहा, "अभी तो छोटी-मोटी सज़ा है, असली बदला अभी बाकी है!"
जब ऊंट पहाड़ के नीचे आया: 'बॉस बेब' का लॉकर्स वाला ड्रामा
अब आया असली मज़ा! एक दिन लेखक काम पर आए और देखा कि उनके जूते गायब हैं। पता चला, इंटर्न मैडम को उनका लॉकर्स पसंद आ गया, सो वो उसके मालिक बन बैठीं! नाम का टैग भी हटा दिया। अब लेखक ने भी सोचा, "करो तो करामात, हम करें तो गुनाह?"
उन्होंने अपने लॉकर्स में ताला लगा दिया, जिसमें अब 'बॉस बेब' के सामान के साथ-साथ उनके खुद के गंदे जूते भी बंद थे। अब अगर उसे अपना सामान वापस चाहिए, तो खुद सुपरवाइजर को जाकर बताना पड़ेगा कि उसने किसी और का लॉकर्स चुराया! है न कमाल का जवाब?
एक कमेंट में किसी ने लिखा, "सीधे सुपरवाइजर को बताओ, उसे अभी से उसकी करतूतों का सबक मिलना चाहिए।" वहीं, एक और ने कहा, "ऐसे लोग संवेदनशील मरीज़ों के बीच काम करने लायक ही नहीं होते।" एक-दो लोगों ने ये भी कहा कि दफ्तर की राजनीति में उलझने से अच्छा है, सीधे-सीधे रिपोर्ट करो — वरना असली नुकसान मरीज़ों का ही है।
दफ्तर की राजनीति या बचपना? कुछ मीठी-तीखी सीखें
इस पूरी घटना में हिंदी समाज के लिए भी कई सीखें छुपी हैं। अक्सर हमारे यहां भी दफ्तरों या अस्पतालों में नए लोग आते हैं, जो 'मैं सब जानती/जानता हूँ' के तेवर में रहते हैं। ऐसे में सीनियर्स का सब्र और समझदारी ही सबसे बड़ा हथियार है। मगर जब हद हो जाए, तो 'पेट्टी रिवेंज' जैसा छोटा सा सबक भी कभी-कभी बड़ी सीख दे सकता है।
जैसा कि एक कमेंट में किसी ने कहा, "ये सब स्कूल का झगड़ा जैसा लग रहा है, मगर सच तो ये है कि छोटी-छोटी बातों से ही असली प्रोफेशनलिज़्म सीखा जाता है।" लेखक ने भी माना, "मैं भी कभी उसकी उम्र में था, मगर इतनी बेसंस्कारी हरकतें करना गलत ही है।"
अंत में पाठकों से सवाल: आप क्या करते?
तो दोस्तों, अगर आपके साथ भी कोई 'बॉस बेब' टाइप इंसान अपने नियम चलाने लगे, तो आप क्या करते? क्या आप भी ऐसी ही कोई प्यारी सी बदला-गाथा रचते, या सीधे सुपरवाइजर का दरवाज़ा खटखटाते? अपने अनुभव या राय हमें कमेंट में ज़रूर बताइए।
और हाँ, अगली बार जब कोई आपके लॉकर्स पर नज़र डाले, तो याद रखिए — 'कभी-कभी गंदे जूते सबसे अच्छा बदला होते हैं!'
मूल रेडिट पोस्ट: Trying to be boss babe? Not with me.