जब बॉस की काग़ज़ी सख़्ती ने दफ़्तर को बना दिया 'मूर्खों की सभा
हर दफ़्तर में एक न एक ऐसा मैनेजर ज़रूर होता है जिसे लगता है कि अगर बिना उसकी इजाज़त के पंखा भी चला तो कंपनी डूब जाएगी। ऐसे बॉसों का 'कंट्रोल प्रेम' किसी फिल्मी खलनायक से कम नहीं होता। लेकिन जनाब, जब कंट्रोल की रस्सी ज़्यादा कस दी जाए, तो गाड़ी पटरी से उतरना तय है। आज की कहानी कुछ ऐसी ही है—जहाँ एक कर्मचारी ने अपने मैनेजर की 'लिखित अनुमोदन' वाली सनक को उसी की भाषा में जवाब दिया, और नतीजा? पूरे दफ़्तर में हड़कंप!
सोचिए, अगर आपके ऑफिस में हर छोटी-बड़ी चीज़ के लिए आपको बॉस से लिखित में 'हाँ' लेनी पड़े—फाइल भेजने से लेकर, चाय पीने तक! यही हुआ एक मिड-साइज़ कंपनी में, जहाँ नए मैनेजर ने सिर्फ़ कंट्रोल के नाम पर कर्मचारियों की नाक में दम कर दिया।
अब ज़रा कहानी पर लौटते हैं। एक दिन टीम में किसी ने छोटी सी गलती कर दी, बस फिर क्या था! बॉस ने मीटिंग बुलाकर ऐलान कर दिया—"अब से हर काम के लिए मेरी लिखित परमिशन लगेगी। न कोई मौखिक मंज़ूरी, न चैट पर ओके, बस ईमेल में सबूत चाहिए।" उन्होंने ये भी साफ़ कर दिया कि हर 'वर्क रिलेटेड एक्शन' के लिए पेपर ट्रेल चाहिए।
हमारे नायक (कर्मचारी) ने भी सोचा—"ठीक है बॉस, जैसा आप कहें!" अगले ही दिन से उन्होंने नियम का अक्षरशः पालन करना शुरू कर दिया। फाइल भेजनी हो, क्लाइंट को जवाब देना हो, कॉल शेड्यूल करना हो, या इंटर्नल डॉक्यूमेंट अपडेट—सब कुछ के लिए बॉस को ईमेल भेजकर लिखित मंज़ूरी माँगना शुरू कर दिया।
अब सोचिए, जिन कामों के लिए पहले चाय की चुस्की लेते-लेते दो मिनट लगते थे, अब हर कदम पे ईमेल और फिर उसके जवाब का इंतज़ार। बॉस के इनबॉक्स की तो मानो बाढ़ आ गई। शुरुआत में तो बॉस ने जवाब देने की कोशिश की, लेकिन जल्दी ही वो खुद ही फँस गए—ईमेल्स का जवाब देना भी उनके बस का नहीं रहा।
काम ठप पड़ने लगा, डेडलाइन फिसलने लगीं। क्लाइंट्स भी पूछने लगे, "इतना देरी क्यों?" कर्मचारियों ने भी सच्चाई बता दी कि 'भीतर से अनुमोदन का इंतज़ार है।' अब ऊपरी प्रबंधन तक बात पहुँच गई। डिपार्टमेंट रिव्यू मीटिंग में बॉस ने टीम को ही दोषी ठहरा दिया। लेकिन जब कर्मचारी ने 40 से ज़्यादा जवाब न मिले ईमेल्स की चेन सामने रख दी, सबकी बोलती बंद हो गई।
यहाँ एक कमेंट करने वाले सज्जन (जो कभी खुद बड़े मैनेजर रह चुके हैं) ने बढ़िया बात कही—"ऐसी हरकतें बड़े-बड़े दफ़्तरों में आम हैं। मैंने खुद देखा है कि कुछ अधिकारी हर 15 मिनट का हिसाब माँगते थे। असल में ऐसे लोग काम पर नहीं, बस कंट्रोल और दिखावे पर भरोसा रखते हैं।"
एक और मज़ेदार कमेंट था—"पैराग्राफ़्स अच्छे दोस्त होते हैं, वैसे जैसे हमें ऑफिस में एक-दूसरे की ज़रूरत होती है!" इस पर किसी और ने चुटकी ली—"शायद परमिशन ना मिलने के कारण पैराग्राफ़्स भी नहीं बने!"
किसी ने तो यहाँ तक कह दिया—"लगता है मैनेजमेंट की ये बीमारी हर जगह फैली है, चाहे भारत हो या अमेरिका।" और सच भी है, हर दफ़्तर में एक ऐसा 'काग़ज़ी शेर' ज़रूर होता है जो कागज़ी घोड़े दौड़ाने में ही मगन रहता है।
खैर, जब ऊपरी प्रबंधन ने देखा कि 'रूटीन' कामों के लिए भी लिखित मंज़ूरी की ज़रूरत क्यों—तो नियम उसी दिन से बदल दिया गया। अब 'कॉमन सेंस' का इस्तेमाल करने की छूट मिल गई और सिर्फ़ खास मामलों में मंज़ूरी लेनी थी। हमारे नायक ने भी सारे ईमेल आज तक संभाल कर रखे हैं—कहीं फिर से बॉस की काग़ज़ी सख़्ती लौट आए, तो सबूत हाज़िर!
इस कहानी से एक सीधा सा सबक है—कभी-कभी सिस्टम को तोड़ने के लिए उसी का इस्तेमाल करना पड़ता है। और हाँ, अपनी टीम पर भरोसा करना सीखिए, वरना बॉस खुद ही अपनी बनाई जाल में फँस जाता है।
क्या आपके ऑफिस में भी ऐसे 'कंट्रोल प्रेमी' बॉस या नियम रहे हैं? या आपने भी कभी ऐसे किसी नियम का 'मालिशियस कंप्लायंस' किया है? नीचे कमेंट में ज़रूर बताइए, और अगर कहानी पसंद आई हो तो अपने दोस्तों के साथ शेयर करें—क्योंकि हर दफ़्तर में एक न एक 'लिखित अनुमोदन' वाला बॉस छुपा बैठा है!
मूल रेडिट पोस्ट: I was told I needed written approval for every single step, so I did exactly that