जब 'बैज' बना काम का रोड़ा: दुकान के कचरे पर मच गया बवाल!
हमारे देश में ऑफिस या दुकान के नियम-कायदे अक्सर उलझन का सबब बन जाते हैं। कभी यूनिफॉर्म की सख्ती, कभी आईडी कार्ड दिखाने की रस्म, तो कभी "यह मेरा काम नहीं" वाली सोच। लेकिन ज़रा सोचिए, अगर किसी ने नियमों का पालन इतनी कड़ाई से कर दिया कि मामला ही उल्टा पड़ जाए, तो क्या होगा? आज हम आपको ऐसी ही एक कहानी सुनाने जा रहे हैं, जिसमें एक कर्मचारी ने 'मालिकाना हक' और 'नियमों' के बीच फँसकर ऐसा दांव खेल दिया कि सब हैरान रह गए!
नए शहर, नई दुकान, और पुराने नियम
कहानी है एक बड़े रिटेल स्टोर की, जहाँ एक कर्मचारी (मान लीजिए नाम है रवि) को अपने मूल स्टोर से हटकर एक दूर-दराज के शहर की ब्रांच में जाना पड़ा। सफर भी कोई कम नहीं—पूरे डेढ़ घंटे की लंबी यात्रा! वहाँ पहुँचते ही रवि ने देखा कि दुकान के दो बड़े कचरे के डिब्बे कचरे से ओवरफ्लो हो रहे हैं। अब, भारत में तो अक्सर सफाई के लिए किसी को ढूंढ़ना पड़ता है, लेकिन यहाँ रवि ने खुद झाड़ू उठाकर सब कचरा बैग में भर लिया और कार्डबोर्ड भी समेट लिया।
रवि की अपनी एक चाल थी—वो नाम का बैज (आईडी कार्ड) पहनकर कचरा नहीं उठाता था। वजह भी बड़ी मजेदार थी। जैसे ही ग्राहक बैज देखकर किसी को कर्मचारी समझ लेते, तुरंत पूछ बैठते—"भाईसाहब, ये सामान कहाँ मिलेगा?" अब जब बंदा खुद नए स्टोर में है, तो जवाब क्या दे! इसलिए बैज डेस्क में छोड़कर, खुद ही चुपचाप सफाई कर ली।
"बैज कहाँ है?"—नियम का डंडा और उल्टा असर
जैसे ही रवि स्टोर के पीछे कर्मचारियों के लिए बने हिस्से में पहुँचा, वहाँ दो और कर्मचारी टपक पड़े—"बैज कहाँ है? आप यहाँ बिना बैज के नहीं घुस सकते!" अब रवि चुपचाप मुस्कुराया और बोला, "बिल्कुल सही कहा आपने।" और फिर उसने दोनों कचरे के बैग वहीं छोड़ दिए, कार्डबोर्ड भी उनके हाथ में थमा दिया। भारतीय मुहावरे में कहें तो, "जो बोले, वही झेले!"
यहाँ एक कमेंट करने वाले ने बहुत सही लिखा—"अगर आप मेरी मदद नहीं करना चाहते, तो खुद ही सब कर लीजिए।" भारतीय ऑफिसों में भी यही हाल है—अक्सर नियम के नाम पर मदद से ज्यादा झंझट पैदा कर दी जाती है।
नियम, सुरक्षा और थोड़ा सा ड्रामा
कई कमेंट्स में यह भी चर्चा हुई कि कर्मचारियों ने सही किया कि बिना बैज वाले व्यक्ति को रोका, क्योंकि सुरक्षा के लिहाज से यह जरूरी है। भारत में भी बड़े ऑफिसों या सरकारी दफ्तरों में बिना आईडी कार्ड के अंदर जाना लगभग नामुमकिन है। एक यूज़र ने तो मज़ाक में लिखा—"अगर कोई सूट-बूट और लैपटॉप लेकर घुस जाए, तो सब मान लेते हैं कि साहब बॉस हैं!"
एक और मजेदार कमेंट था—"कभी-कभी तो ग्राहक सिर्फ आपके चलने के अंदाज से पहचान लेते हैं कि आप स्टाफ हैं।" सोचिए, हमारे यहाँ भी अगर आप बैंक या सरकारी दफ्तर में थोड़ा कॉन्फिडेंट होकर चलें, तो लोग खुद ब खुद फॉर्म थमा देते हैं—"भैया, ये कहाँ जमा होगा?"
ऑफिस की राजनीति और 'कर्मचारी बनाम नियम'
इस कहानी से एक बात तो साफ है—नियम ज़रूरी हैं, लेकिन उनमें लचीलापन भी होना चाहिए। कई बार जरूरत के वक्त 'नियम' की आड़ में हम अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं। ठीक वैसे ही जैसे भारतीय दफ्तरों में "ये मेरा काम नहीं" कहने का ट्रेंड चलता है। और जब किसी ने नियम का अक्षरशः पालन कर दिया, तो पीछे से आवाजें आती हैं—"अरे, ये कचरा क्यों छोड़ गए?"
कुछ पाठकों ने तो कहा, "ये तो 'मालिकाना हक' के नाम पर अति कर दी!" वहीं एक ने लिखा, "आज के विजेताओं को इनाम मिलता है—एक ढेर सारा कचरा!"
क्या आपने भी किया है ऐसा?
अब आप ही बताइए, क्या आपके साथ भी कभी ऑफिस या दुकान में ऐसा कुछ हुआ है? कभी किसी नियम को लेकर उल्टा पड़ गया हो? या फिर किसी ने 'सिर्फ आदेश का पालन' करने के नाम पर आपको उलझन में डाल दिया हो? नीचे कमेंट में जरूर बताइए! और हाँ, अगली बार जब कोई आपसे कहे—"नियम का पालन करो," तो सोचिएगा जरूर—नियम निभाने वाला भी आखिर इंसान ही है!
समाप्ति पर यही कहेंगे—नियम बनाइए, लेकिन इंसानियत और समझदारी को कभी न भूलिए। कचरा उठाना हो या मदद करना—थोड़ी सी लचीलापन, थोड़ा सा हास्य और ढेर सारा सहयोग—यही असली काम की चाबी है!
आपकी क्या राय है? अपने अनुभव हमारे साथ शेयर करें—क्योंकि हर ऑफिस में एक 'रवि' जरूर होता है!
मूल रेडिट पोस्ट: Ok, you take the garbage since you have your BADGE on