जब फैक्ट्री के बॉस की चालाकी पर भारी पड़ा एक कर्मचारी का 'मालिशियस कंप्लायंस
काम का बोझ, फैक्ट्री की तपती गर्मी, और ऊपर से बॉस की छोटी-छोटी ताकत का बेजा इस्तेमाल – ये कहानी है उन लाखों लोगों की जो रोज़मर्रा की नौकरी में ऐसी हालातों से दो-चार होते हैं। पर आज की हमारी कहानी में कुछ अलग है: यहाँ एक नौजवान कर्मचारी ने ‘मालिशियस कंप्लायंस’ यानी अपने बॉस के कहे का अक्षरशः पालन कर, उसी को उलझन में डाल दिया और साथियों की मदद भी कर डाली।
सोचिए, ऐसी जगह जहाँ काम के बोझ से ज़्यादा गर्मी और थकान सताती हो, और ऊपर से बॉस का रवैया नमक छिड़कने जैसा हो—वहाँ एक छोटी-सी चालाकी कैसे सिस्टम को आईना दिखा देती है!
फैक्ट्री का हाल और बॉस की मनमानी
कहानी शुरू होती है एक फैक्ट्री से, जहाँ डिस्प्ले बॉक्स बनाए जाते थे। conveyor belt पर महिलाएँ और कुछ बुजुर्ग काम कर रहे थे—गर्मी इतनी कि एक गर्भवती महिला दो बार बेहोश तक हो गई, और कई बुजुर्गों की तबीयत भी बिगड़ गई। ऐसे में हमारे नायक, जो जवान और फुर्तीले थे, अपने काम को जल्दी-जल्दी निपटाकर बाकी साथियों को ब्रेक देने लगते।
पर दिक्कत तब आई जब उन्होंने लाइन बॉस से पूछा, "एक रन में कितने आइटम बनने हैं?" ताकि वो हिसाब लगा सकें कि कितने बॉक्स बनाने हैं, और फिर दूसरों की मदद कर सकें। बॉस का जवाब? "ये तुम्हारे जानने की बात नहीं, तुम्हारा काम बस बॉक्स बनाना है।" अब ज़रा सोचिए, हमारे देश की फैक्ट्रियों में भी ऐसी बातें कितनी आम हैं—जहाँ छोटे पद पर बैठा कोई व्यक्ति भी अपनी ‘पॉवर’ दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता।
'ठीक है, सिर्फ बॉक्स ही बनाऊँगा!'
अब यहाँ से असली खेल शुरू होता है। बॉस ने कहा 'बस बॉक्स बनाओ', तो कर्मचारी ने सोचा – ‘जो हुक्म!’ और फिर बिना रुके, जितना हो सके उतने बॉक्स बनाते रहे। परिणाम? रन के खत्म होने तक सैकड़ों-हज़ारों एक्स्ट्रा बॉक्स बन गए। अब इन अनावश्यक बॉक्सों को दुबारा खोलना, स्टैक करना—पूरी टीम सिर पकड़कर बैठ गई!
इसी पर एक Reddit यूजर ने कमेंट किया, "असली टीमवर्क तो यही है—जब मैनेजर की अकड़ के खिलाफ पूरी टीम को राहत मिले।" और एक और यूजर ने हँसी में लिखा, "लगता है कर्मचारी ने बॉस को ही बॉक्स में बंद कर दिया!"
प्रबंधन का असली मतलब: ताकत या सहारा?
इस घटना के बाद फैक्ट्री का फ्लोर मैनेजर आ गया और लाइन बॉस से पूछा, "ये सब क्या हो रहा है?" बॉस को जवाब देना मुश्किल हो गया। अब हर बार लाइन बॉस को मना-मना कर बताना पड़ता कि कितने आइटम बनेंगे, जिससे कर्मचारी अपने काम के बाद दूसरों की मदद कर सके।
यहाँ एक कमेंट में किसी ने लिखा, "अच्छे मैनेजर वही हैं जो अपने कर्मचारियों को आगे बढ़ने में मदद करें, न कि अपनी ताकत दिखाएँ।" एक और यूजर ने अपनी पत्नी का उदाहरण दिया—"मेरी पत्नी ने कंपनी इसलिए बदली क्योंकि वहाँ के बॉस को लगता था कि कर्मचारी सिर्फ बॉस का बोझ हल्का करने के लिए हैं, जबकि असलियत में मैनेजर को अपनी टीम के लिए काम करना चाहिए।"
भारतीय संदर्भ में भी यही बात लागू होती है—जब बॉस सिर्फ हुक्म चलाना जानता है, टीम का मनोबल गिर जाता है। लेकिन जहाँ बॉस साथ काम करता है, वहाँ सबका काम आसान हो जाता है—"सबका साथ, सबका विकास" वाला मामला!
समझदारी और ‘मालिशियस कंप्लायंस’ का असर
इस घटना से एक और बड़ी सीख मिलती है—जब भी कोई कर्मचारी अपने काम से आगे बढ़कर टीम की मदद करना चाहता है, तो उसे रोकने की बजाय उसकी पहल को सराहा जाना चाहिए। अगर बॉस ने पहले ही थोड़ी समझदारी दिखाई होती, तो न टीम की मेहनत बेकार जाती, न बॉक्सों की फौज लगती!
एक और कमेंट में किसी ने लिखा, "फैक्ट्री का असली नुकसान तो तब होता है जब लोग अपने फायदे के लिए काम को खींचते और समय बर्बाद करते हैं।" भारत में भी कई बार औद्योगिक क्षेत्रों या सरकारी दफ्तरों में देखा जाता है—'काम खींचो, घंटा पूरा करो' वाली सोच से प्रोडक्टिविटी पर असर पड़ता है।
निष्कर्ष: बॉस की अकड़ पर कर्मचारी की अक्ल भारी!
इस कहानी से एक सीधी-सादी सीख मिलती है: किसी भी संस्थान में अगर हर कोई सिर्फ अपना-अपना जिम्मा निभाएगा, और चीज़ें छुपाकर चलेगा, तो न टीम चल पाएगी, न काम में मज़ा आएगा। और अगर कभी ज़रूरत पड़े, तो ‘मालिशियस कंप्लायंस’ जैसा छोटा-सा झटका भी बड़े-बड़ों को सोचने पर मजबूर कर सकता है।
तो अगली बार जब आपके दफ्तर में कोई छोटा-बड़ा बॉस अपनी 'पॉवर' दिखाए, तो इस कहानी को याद कीजिए और टीमवर्क की ताकत पर भरोसा रखिए।
क्या आपके साथ कभी ऐसा कुछ हुआ है? अपने अनुभव नीचे कमेंट में जरूर शेयर करें!
मूल रेडिट पोस्ट: Malicious Compliance in a Factory