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जब पड़ोसी ने पार्किंग लाइन पार की – और मिला ‘चाय के साथ बदला’!

हम सबकी ज़िंदगी में कभी न कभी ऐसा पड़ोसी ज़रूर आता है, जो अपनी मनमानी से हमें तंग करता है। कभी तेज़ आवाज़ में म्यूजिक, कभी दीवार पर ड्रिलिंग, तो कभी–कभी बस अपनी मौजूदगी ही भारी लगने लगती है। लेकिन असली कहानी तो तब शुरू होती है जब बात अपनी जगह, अपने हक़ और अपनी ‘पार्किंग’ की हो!

आज की कहानी है एडिनबरा के एक साहब की, जिनका नाम है (मान लीजिए) अमित। अमित एक साधारण नौकरीपेशा इंसान हैं, लेकिन उनकी कहानी में ट्विस्ट तब आया जब उनके पड़ोसी डंकन ने ‘सीधी रेखा’ को सीधा मानने से इनकार कर दिया।

जब लाइन की इज़्ज़त न हो…

अमित और डंकन, दोनों का घर सेमी-डिटैच्ड है यानी एक ही छत के नीचे दो अलग परिवार। इनका ड्राइववे भी बंटा हुआ है – बीच में एक साफ-सुथरी सफेद लाइन, एक तरफ अमित, दूसरी तरफ डंकन। अब सोचिए, ये लाइन तो वैसे ही है जैसे हमारे मोहल्लों में दीवार के ऊपर बनी ईंटों की लाइन – "इधर से उधर मत आना!"

लेकिन डंकन साहब को न जाने कौन सा रंगीन चश्मा लगा था, उन्हें वो लाइन नज़र ही नहीं आती थी। हर रोज़ उनकी BMW (जी हाँ, वही बड़ी वाली गाड़ी) 30-40 सेंटीमीटर अमित की साइड में घुस आती। अमित ने अच्छे से, फिर थोड़ी सख्ती से, और फिर एक नोट लिख कर भी डंकन को समझाया – "भाईसाहब, ज़रा अपनी साइड में रहिए, मेरी गाड़ी बड़ी है।"

लेकिन डंकन का जवाब – "अरे, कुछ नहीं होता, तुम्हारे पास बहुत जगह है!" जैसे हमारे यहाँ कोई पड़ोसी कह दे, "थोड़ा सा सामान तो तुम्हारी छत पर रख दिया, क्या फर्क पड़ता है!"

बदले की चाय – अमित का मास्टरस्ट्रोक

अब अमित भी ठहरे भारतीय मिज़ाज वाले – चुपचाप सहना उनकी फितरत में नहीं! उन्होंने अपने पुराने 2003 मॉडल वाली कार (कुछ-कुछ हमारी मारुति 800 जैसी समझ लीजिए) को अपनी साइड में, लाइन के बिलकुल पास पार्क कर दिया। न एक इंच आगे-पीछे, न कोई समझौता।

अब क्या था, डंकन की BMW के लिए जगह ऐसी हो गई जैसे पुराने मोहल्ले में दो स्कूटर के बीच साइकिल घुसाना! अगले दिन अमित ने खिड़की से चाय की चुस्की लेते हुए देखा – डंकन 15 बार आगे-पीछे करके गाड़ी निकाल रहे हैं, चेहरा लाल, पसीना-पसीना। अमित की मुस्कान देखिए, जैसे किसी ने IPL फाइनल में आखिरी बॉल पर छक्का मार दिया हो!

डंकन आए – "तुम्हारी कार रास्ते में है।" अमित – "नहीं, भाईसाहब, देखिए लाइन – मैं तो अपनी जगह हूँ।" डंकन के पास कोई जवाब नहीं…

क्या ये बचकाना बदला था? या ज़रूरी सबक?

अब यहाँ सवाल उठता है – क्या अमित थोड़ा बचकाना (childish) हो गए? कई Reddit यूज़र्स ने भी यही पूछा। एक साहब ने लिखा, "कुछ लोगों को उनकी ही भाषा में जवाब देना पड़ता है, वरना वो समझते ही नहीं!" एक और मज़ेदार कमेंट था, "बिल्कुल सही किया, ये वही 'चाय के साथ बदला' है, जो हर पड़ोसी को समझना चाहिए!"

हमारे यहाँ भी तो ऐसे किस्से आम हैं – कोई बार-बार आपकी बालकनी में कपड़े सुखा देता है, आप एक दिन अपनी बालकनी में मिर्ची सुखा देते हैं! मोहल्ले की राजनीति में यही तो असली रस है।

एक यूज़र ने कहा, "जब आप अच्छे से, प्यार से समझाओ और सामने वाला फिर भी ना माने, तो थोड़ा 'बचकानापन' ज़रूरी है।" दूसरे ने लिखा, "अगर आपका पड़ोसी लाइन नहीं समझता, तो उसे लाइन पर खड़ा कर दो!"

भारतीय मोहल्लों की अपनी ही कहानी है…

भारत में तो ऐसे झगड़े और भी मसालेदार होते। यहाँ तो लोग लाइन की जगह पत्थर, गमला, या नींबू-मिर्च तक रख देते हैं – "इधर मत आना!" कुछ लोग तो अपनी तरफ सीमेंट की दीवार उठा लेते हैं, तो कुछ चौकीदार से गेट बंद करवा देते हैं।

एक Reddit यूज़र ने सुझाव भी दिया, "अगर कार पुरानी हो गई है, तो लाइन के पास लोहे की छड़ें गाड़ दो – फिर देखना कौन घुसता है!"

और हाँ, अमित की पत्नी का जिक्र भी ज़रूरी है – उन्होंने कहा, "ये थोड़ा बचकाना है", लेकिन अमित बोले, "मुझे फर्क नहीं पड़ता, डंकन को अपनी साइड में रहना चाहिए था!"

अंत भला तो सब भला – पड़ोसी से सीख

इस कहानी में छुपा है एक बड़ा सबक – चाहे एडिनबरा हो या इलाहाबाद, अगर पड़ोसी बार-बार आपकी हदें लांघे, तो थोड़ा 'पेटी' (petty) बनना भी ठीक है। आखिर, अपनी हक की जगह बचाना कोई छोटी बात नहीं!

तो अगली बार अगर कोई आपके अधिकार में दखल दे, याद रखिए – थोड़ा बचपना भी कभी-कभी बहुत काम आता है। और हाँ, चाय की चुस्की के साथ पड़ोसी की मुश्किलें देखना, वो तो हमारी परंपरा है ही!

आपका क्या अनुभव है? क्या आपके मोहल्ले में भी ऐसे 'डंकन' हैं? कॉमेंट करके बताइए, और अगर कहानी अच्छी लगी तो शेयर करना न भूलें।

शुभकामनाएँ – पड़ोसी शांति और पार्किंग लाइन की इज़्ज़त बनी रहे!


मूल रेडिट पोस्ट: Neighbour kept parking over the line