जब नेताओं की जिद ने सबकी निजी ज़िंदगी इंटरनेट पर उघाड़ दी: एक सरकारी आईटी अफसर की कहानी
भैया, आजकल तो डिजिटल इंडिया का ज़माना है, हर चीज़ ऑनलाइन – बिजली का बिल, राशन कार्ड, गैस कनेक्शन, और अब तो शादी-ब्याह के कार्ड भी व्हाट्सएप पर! लेकिन सोचिए, अगर आपकी सारी निजी जानकारी – घर का पता, कुत्ते का नाम, बिल्डिंग के नक्शे, यहां तक कि पानी का बिल तक – सबके लिए एक क्लिक पर उपलब्ध हो जाए? जरा सोचिए, पड़ोसी की बुआ, मोहल्ले की आंटी, या फिर कोई अजनबी आपकी जिंदगी की किताब पन्ना-पन्ना पढ़ रहा हो!
आज हम आपको एक ऐसी सच्ची घटना सुनाने जा रहे हैं, जिसमें सरकारी अफसरों ने नेताओं की जिद का ऐसा मज़ेदार, मगर खतरनाक नतीजा देखने को मिला कि पूरी जनता हक्का-बक्का रह गई। और मज़ा ये कि जो नुकसान हुआ, उसके बाद सबने एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ा – जैसे हमारे यहां कटहल की सब्ज़ी में मिर्ची ज़्यादा पड़ जाए तो घर के हर सदस्य पर शक जाता है!
कैसे शुरू हुआ ये 'डिजिटल तमाशा'?
ये किस्सा है ऑस्ट्रेलिया के एक राज्य का, लेकिन इसकी कहानी में हिंदुस्तानी तड़का है! वहां की सरकार ने नया कानून पास कर दिया – "सारी लोकल सरकारी जानकारी अब वेबसाइट पर डालो, ताकि कोई भी देख सके।" इसमें क्या-क्या था? आपके घर के नक्शे, प्रॉपर्टी के कागज़, कुत्ते-बिल्ली की रजिस्ट्रेशन, पानी-बिजली का हिसाब-किताब – सबकुछ! पहले ये जानकारी लेने के लिए सरकारी दफ्तर जाना पड़ता था, पहचान पत्र दिखाओ, रजिस्टर में नाम लिखवाओ, और फिर बाबूजी के मूड के हिसाब से फाइल खुलती थी। लेकिन अब? बस इंटरनेट खोलो, नाम डालो, और पूरा पंचायत खुला पड़ा है!
हमारे हीरो, जिनका नाम है 'CptUnderpants-' (नाम पढ़कर मत हंसिए, ऑस्ट्रेलिया में अजीब-अजीब नाम चल जाते हैं!), उस वक्त एक लोकल सरकारी वेबसाइट के वेबमास्टर थे। जब नेताओं ने ये कानून पास किया, तो इन्होंने हाथ जोड़कर, मीठी-मीठी चाय पिलाकर, समझाने की कोशिश की – "साहब लोग, जनता नाराज़ हो जाएगी! कोई सारा डेटा चुरा ले जाएगा, लोगों की प्राइवेसी का क्या होगा?" लेकिन नेताओं के कान पर जूं तक न रेंगी – जैसे हमारे यहां कभी-कभी 'जनता की आवाज़' नेताओं तक पहुंचते-पहुंचते खो जाती है।
'मालिशियस कंप्लायंस' – कानून का पालन, पर तड़के के साथ!
जब समझाने से बात न बनी, तो हमारे वेबमास्टर साहब ने सोचा – "ठीक है, जैसा बोले हैं वैसा ही करेंगे, पर मज़ा तब आएगा जब खुद देखेंगे क्या होता है!" उन्होंने बढ़िया पोर्टल बना डाला, कैप्चा भी लगा दिया (मतलब वो 'मैं रोबोट नहीं हूं' वाला जुगाड़), और लोकल अखबार वालों को भी न्योता दे दिया – "भैया, कल सुबह 9 बजे देखना, पूरी जनता की जानकारी ऑनलाइन लाइव होगी!"
बस फिर क्या था? अखबार वालों ने भी अपनी पत्रकारिता का धर्म निभाया – अगले ही दिन, अखबार की हेडलाइन – "अब आपकी निजी जानकारी सबके लिए खुली किताब!" मोहल्ले का हर आदमी हैरान – "अरे मेरी बीवी का नाम, मेरा पता, सब कोई ऐसे कैसे देख सकता है?" लोग इतने नाराज़ हुए कि नेताओं की नींद उड़ी गई। अगले दिन सरकारी दफ्तर से आदेश आया – "वेबसाइट तुरंत बंद करो!" और वेबसाइट 27 घंटे के बाद हमेशा के लिए ऑफलाइन हो गई।
जनता की प्राइवेसी बनाम सरकारी पारदर्शिता – कौन जीता, कौन हारा?
अब यहां सवाल उठता है – सरकारी जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए या लोगों की प्राइवेसी ज़्यादा ज़रूरी है? जैसे हमारे यहां आरटीआई (सूचना का अधिकार) है, वैसे ही वहां भी कागज़ी तौर पर सबको जानकारी मिल सकती थी, लेकिन ऑनलाइन डालना मतलब – चोर, जासूस, पड़ोसी – सबको चांदी हो गई! एक पाठक ने कमेंट में लिखा – "भैया, अमेरिका में तो पानी का बिल, टैक्स, वोटर लिस्ट – सबकुछ ऑनलाइन है। बस नाम या पता डालो, पूरा हिसाब-किताब सामने!"
एक और मज़ेदार कमेंट आया – "अगर कोई घरेलू हिंसा की शिकार महिला है, उसका पति बस नाम डालकर पता निकाल लेगा, फिर क्या होगा?" सोचिए, ये कितना खतरनाक हो सकता है। हमारे देश में भी कई बार आधार, मतदाता सूची जैसी चीज़ें लीक होने की खबरें आती हैं, और लोग डर जाते हैं कि कहीं उनकी जानकारी गलत हाथों में न चली जाए।
एक और पाठक ने तगड़ा तंज कसा – "सरकार तो अब पैसे भी लेने लगी है प्राइवेसी के नाम पर! जैसे हमारा फोन नंबर लिस्ट से हटाने के लिए चार्ज लेती थी, वैसे ही!" यानी, 'जानकारी हमारी है, और उसकी सुरक्षा भी खरीदनी पड़ेगी?'
नेताओं की राजनीति और जवाबदेही – सब पर है ठीकरा, मगर कोई दोषी नहीं!
सबसे मज़ेदार हिस्सा तो तब आया, जब जनता नाराज़ हुई और जांच बैठी। नेता बोले – "हमने तो सिर्फ कानून बनाया, असली गलती आईटी वालों की है!" आईटी वाले बोले – "हमने तो पहले ही आगाह कर दिया था, सबकी ईमेल और कागज़ात भी संभाल के रखे हैं!" आखिर में वही हुआ, जो अक्सर होता है – जांच समिति ने खुद को निर्दोष पाया, और जनता को जवाब नहीं मिला।
यह पढ़कर एक पाठक ने कहा – "नेता खुद ही जांच करते हैं, खुद को बेकसूर बताते हैं – ये तो हमारे देश की पुरानी परंपरा है!"
निष्कर्ष: डिजिटल युग में 'सोच-समझकर' कानून बनाना ज़रूरी!
दोस्तों, इस कहानी से एक बात साफ है – तकनीक जितनी तेज़ है, उतनी ही खतरनाक भी हो सकती है, अगर उसे बिना सोचे-समझे लागू किया जाए। पारदर्शिता अच्छी बात है, लेकिन हर चीज़ की हद होती है। जैसे घर की दीवारें सबको दिखती हैं, मगर घर के अंदर का हाल सबको बताना जरूरी नहीं!
तो अगली बार जब कोई नेता, अफसर या तकनीकी कंपनी आपकी जानकारी ऑनलाइन डालने की बात करे, तो ज़रूर पूछिए – "भैया, हमारी प्राइवेसी की भी कोई कीमत है या नहीं?" और हां, डिजिटल इंडिया बनाइए, लेकिन 'डिजिटल सुरक्षा' का ताला लगाना मत भूलिए!
आपका क्या विचार है इस बारे में? क्या आप चाहेंगे कि आपके मोहल्ले का हर आदमी आपकी जानकारी इंटरनेट पर देख सके? अपने अनुभव और राय नीचे कमेंट में ज़रूर साझा करें!
मूल रेडिट पोस्ट: Politicians ignore warnings about publishing everyone's data online.