जब थैरेपिस्ट की 'सच बोलो' की सलाह उन्हीं पर भारी पड़ गई

थेरेपी में खुलकर बात करता एक व्यक्ति का कार्टून 3D चित्रण, जो ईमानदारी और आत्म-अभिव्यक्ति का प्रतीक है।
यह जीवंत कार्टून-3D चित्रण थेरेपी में बिना किसी छिपाव के ईमानदारी की भावना को दर्शाता है। यह आत्म-खोज की गहरी यात्रा और अपने प्रति सच्चे रहने की शक्ति को उजागर करता है, जैसा कि मेरे मनोवैज्ञानिक ने बताया। मेरी अनुभव में खो जाइए और देखें कि कैसे संवेदनशीलता को अपनाने से व्यक्तिगत विकास हो सकता है!

हम सबने कभी न कभी ये सुना होगा – "सच बोलो, मन की बात छुपाओ मत।" अब सोचिए, अगर यही सलाह आपको आपके मनोचिकित्सक (थैरेपिस्ट) रोज़-रोज़ बार-बार दें, तो आप क्या करेंगे? "जो मन में आए, बेहिचक बोलो, ये एक सुरक्षित जगह है," ऐसा सुन-सुन कर कोई भी सोच सकता है कि चलो, आज दिल खोल ही दिया जाए!

आज की कहानी है एक Reddit यूज़र की, जो अपने थैरेपिस्ट की इस सलाह पर पूरा अमल कर बैठे – और फिर जो हुआ, वो पढ़कर आप भी सोच में पड़ जाएंगे कि आखिर ज़्यादा ईमानदारी कब भारी पड़ जाती है!

थैरेपी की क्लासिक पटकथा

हमारे मुख्य किरदार (चलो, इन्हें ‘राहुल’ मान लेते हैं) काफी वक्त से अपने थैरेपिस्ट के पास जा रहे थे। सब कुछ सामान्य – भावनाओं की बातें, आदतों की चर्चा, रोजमर्रा के मनोवैज्ञानिक मसले। हर बार थैरेपिस्ट का वही राग – "ईमानदारी से बताओ, कोई फ़िल्टर मत लगाओ, ये जगह पूरी तरह सुरक्षित है।"

राहुल ने भी सोचा – भाई, कब तक मीठी-मीठी बातें करता रहूं? आज तो दिल की पूरी भड़ास निकालनी है। थैरेपिस्ट ने जब पूछा, “थैरेपी के बारे में कैसा महसूस कर रहे हो?” तो राहुल ने बिना लाग-लपेट कह दिया – "कभी-कभी तो ये सब बहुत बोरिंग लगता है, आपकी बातें स्क्रिप्टेड (रटी-रटाई) सी लगती हैं, कई बार ऐसा लगता है जैसे मैं किसी इंसान से नहीं बल्कि एक प्रक्रिया से बात कर रहा हूं। और आपकी प्रतिक्रियाएं भी कभी-कभी बनावटी लगती हैं।"

बस, इतना सुनते ही कमरे का माहौल बदल गया। थैरेपिस्ट की कुर्सी खिसकने लगी, चेहरे पर गंभीरता आ गई, और अचानक वही थैरेपिस्ट जो 'नो-फ़िल्टर' की दुहाई दे रहे थे, कहने लगे – "हर बात कहना ज़रूरी नहीं होता, सम्मान बनाए रखना चाहिए।" भाई, पांच मिनट पहले तो आप ही कह रहे थे कि सब कुछ बोलो!

सच बोलने पर गिल्टी फीलिंग – क्यों?

राहुल कन्फ्यूज़ – "मैंने तो वही किया जो उनसे बार-बार सुना, फिर अब मुझे गिल्टी क्यों फील हो रहा है?" पूरी सेशन इसी बात पर निकल गया कि राहुल को ये बातें कहने की ज़रूरत क्यों पड़ी, न कि उन बातों में दम था या नहीं। आखिर में राहुल को लगा – "ये तो उल्टा मेरे ही ऊपर आ गया, अब मैं ही गलत हो गया!"

समाज में अक्सर ऐसा देखा जाता है – चाहे दफ्तर में बॉस हो या घर में माता-पिता, जब तक आप उनकी बातों के हिसाब से बोलते हैं, सब ठीक। लेकिन ज़रा-सा सच बोल दो, तो मामला उल्टा पड़ जाता है। थैरेपी के मामले में तो ये और भी चौंकाने वाला था, क्योंकि वहां तो खुलकर बोलने की ही बात होती है।

रेडिट कम्युनिटी के तड़के

अब आते हैं Reddit के मज़ेदार कमेंट्स पर, जिनमें भारतीय चटपटे मसाले की कमी नहीं रही। एक यूज़र ने लिखा (अनुवादित) – "भैया, अब तो नया थैरेपिस्ट तलाशो।" एक दूसरे ने कहा, "हर थैरेपिस्ट अच्छा नहीं होता, कई बार तो खुद के मुद्दे सुलझाने के लिए ये पढ़ाई पकड़ लेते हैं!"

एक स्वयंसेवी मनोवैज्ञानिक ने कमाल की बात कही – "अगर मेरा क्लाइंट इतनी ईमानदारी दिखाए तो मैं तो खुशी से झूम उठूं! इतनी गहरी बात कहने के लिए बहुत भरोसा चाहिए, और ये भरोसा थैरेपिस्ट की सफलता है, न कि असफलता।" सोचिए, अगर हमारे यहां के काउंसलर भी इतना खुलापन दिखाएं तो क्या-क्या बदल सकता है!

एक और टिपिकल भारतीय कमेंट – "अगर जवाब सुनना पसंद नहीं, तो सवाल ही क्यों पूछते हो?" ये बात तो हर घर, दफ्तर, या रिश्तेदारी में होती है। ‘सच बोलो’ का दावा सब करते हैं, मगर सच सुनने की हिम्मत कम ही होती है।

थैरेपी – ग्राहक सेवा या रिश्तेदारी?

एक और यूज़र ने कहा, "आप ग्राहक हैं, पैसा दे रहे हैं – अगर सेवा पसंद नहीं, तो बदल डालिए।" ये बात भी हमारे समाज में लागू होती है – चाहे डॉक्टर हो, वकील हो, या थैरेपिस्ट – कभी-कभी हम सिर्फ इसलिए झेलते रहते हैं क्योंकि ‘अच्छा नहीं लगेगा’ या ‘क्या कहेंगे लोग’ वाली सोच बैठी रहती है। मगर असल में, सबसे जरूरी है कि हमें मदद मिल रही है या नहीं।

कुछ चर्चित कमेंट्स में ये भी देखा गया कि थैरेपिस्ट को खुद अपने ऊपर काम करना चाहिए। अगर वह खुद रचनात्मक आलोचना (constructive criticism) नहीं ले सकते, तो भला दूसरों की मदद कैसे करेंगे! एक कमेंट में तो यहां तक कहा गया – "अगर थैरेपिस्ट को अपनी गलती मानना नहीं आता, तो उन्हें पहले खुद थैरेपी में जाना चाहिए।"

हमारी संस्कृति में परामर्श (counseling) को लेकर अभी भी बहुत सी भ्रांतियां हैं। कई लोग सोचते हैं कि थैरेपिस्ट भगवान हैं और उनकी बात पत्थर की लकीर। लेकिन असलियत ये है कि थैरेपी एक साझेदारी है – जहां क्लाइंट और काउंसलर दोनों का खुलापन और भरोसा जरूरी है।

अंत में सीख – अपनी आवाज़ को मत दबाइए

इस पूरी घटना से एक सॉलिड सीख मिलती है – अपनी भावनाओं को दबाना, सिर्फ इसलिए कि सामने वाला बुरा न मान जाए, कभी-कभी खुद के साथ अन्याय है। चाहे थैरेपी हो या ज़िंदगी – स्वस्थ रिश्ता वहीं बनता है, जहां दोनों तरफ से ईमानदारी और स्वीकार्यता हो।

तो अगली बार जब कोई आपसे कहे – "जो मन में है, खुलकर कहो" – तो पहले ये भी देख लीजिए कि सामने वाला सच सुनने के लिए तैयार है या नहीं। और अगर नहीं है, तो खुद को दोषी महसूस करने की कोई जरूरत नहीं। थैरेपिस्ट बदलना भी आपकी ही जिम्मेदारी है – जैसा कई Reddit यूज़र्स ने कहा – "सही मदद तलाशो, गलत पर अटके मत रहो!"

क्या कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आपने दिल की बात कही और उल्टा आपको ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया? नीचे कमेंट में बताइए – आपकी कहानियां पढ़कर औरों को भी हिम्मत मिलेगी!

(थैरेपी या मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कोई चिंता हो तो अपने नजदीकी विशेषज्ञ से संपर्क करें।)


मूल रेडिट पोस्ट: My therapist told me to always be 100 percent honest and unfiltered, so I did