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जब टेक्नोलॉजी ने बना दिया टिकटों का पहाड़: एक MSP की अनोखी कहानी

एक फोटोरियलिस्टिक छवि जिसमें कंप्यूटर स्क्रीन पर पासवर्ड और PII मॉनिटरिंग सॉफ़्टवेयर दिखाया गया है।
आज की डिजिटल दुनिया में पासवर्ड और PII मॉनिटरिंग की बारीकियों को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह फोटोरियलिस्टिक छवि उस उन्नत सॉफ़्टवेयर को उजागर करती है जो संवेदनशील डेटा को सुरक्षित रखता है, उपयोगकर्ताओं और संगठनों के लिए मन की शांति सुनिश्चित करता है।

अगर आप कभी ऑफिस में बैठे-बैठे सोचते हैं, "यार, आज तो बहुत बोरिंग दिन है," तो ज़रा हमारे आज के हीरो की कहानी सुन लीजिए। टेक्निकल सपोर्ट की दुनिया में जहां लोग कंप्यूटर के झंझट से परेशान रहते हैं, वहीं एक इंजीनियर की ज़िंदगी टिकटों के जाल में ऐसी फसी कि पूछिए मत।

इस MSP (Managed Service Provider) में काम करने वाले साहब का नाम मान लीजिए ‘राजू’ है। इनकी ड्यूटी थी, अपने क्लाइंट्स के सिस्टम्स पर नज़र रखना, खासकर ऐसी चीज़ों पर जिनमें गोपनीय जानकारियाँ (PII) जैसे आधार नंबर, पते, पासवर्ड्स आदि लीक होने का खतरा हो। अब सुनिए, जिसकी जिम्मेदारी ऐसी हो, उसका काम कितना सिरदर्द भरा हो सकता है!

टिकटों का सैलाब: जब सिस्टम ही बन जाए मुसीबत

राजू जिस सिस्टम के भरोसे थे, वही सिस्टम एकदम ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ निकला। ये सिस्टम ख़ुद ही इतनी गड़बड़ियां करने लगा कि जितने लोगों के लिए बना था, उनसे ज़्यादा टिकटें बना दीं!

तीन हफ्ते पहले, जब राजू ने सुबह-सुबह सिस्टम खोलकर देखा तो उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं – पूरे 1,900 टिकट! जबकि उनके पास केवल 1,500 कंप्यूटर सपोर्ट करने को थे। और अगले दो हफ्तों में 500 और टिकटें जुड़ गईं। हर टिकट में या तो कोई ऐसा यूज़र था जो अब कंपनी में था ही नहीं, या फिर टिकट में सिर्फ नाम, पता या फोन नंबर जैसी ऐसी जानकारी थी जिसे कोई बदल ही नहीं सकता। कुछ टिकट तो एक ही समस्या की कई-कई कॉपियाँ थीं, यानी डुप्लीकेट!

अब सोचिए, अगर आपसे कहा जाए कि हर टिकट पे कम से कम 15 मिनट खर्च करो, तो हफ्ते के 200 घंटे तो चुटकियों में निकल जाएंगे। एक कमेंट में किसी ने मजाक में लिखा, "भई, ये तो पैसा कमाने का नया तरीका है!" लेकिन असलियत ये थी कि कंपनी शायद सारे घंटे बिल ना करे, कुछ को एडमिनिस्ट्रेटिव काम मान ले।

क्यों नहीं सुधरता सिस्टम? और अकेला हीरो क्यों?

अब आप सोच रहे होंगे, इतनी बड़ी गड़बड़ है तो कंपनी वाले कुछ करते क्यों नहीं? तो भाई, असली दिक्कत ये थी कि सिस्टम को सही करने की परमिशन राजू के पास थी ही नहीं। जिनके पास थी, वो हर बार "कर लेंगे" कहकर टाल देते, और फिर गधे के सिर से सींग हो जाते।

वैसे ऑफिस के बाकी लोग तो टिकट क्यू देखना ही जरूरी नहीं समझते थे। राजू ही अकेले थे जो टिकट क्यू पर नजर रखते थे, इसलिए सारी आफत उन्हीं पर आ जाती। जैसे हिंदी फिल्मों में हीरो हमेशा अकेला ही क्यों होता है, वैसा ही इनका भी हाल!

एक पाठक ने सलाह दी, "क्यों ना इन सब टिकटों की कॉपी उसी 'कर लेंगे' वाले के पास भेज दी जाए, ताकि असली मजा आए?" लेकिन राजू जैसे लोग तो आमतौर पर सब्र की मिसाल बन जाते हैं।

टिकट, टिकट, टिकट...और शोजो ऐनिमे!

अब इतनी बोरिंग और थकाऊ जॉब को झेलना कोई आसान बात नहीं। राजू ने खुद बताया कि अगर उनके पास फोन में शोजो रोमांस ऐनिमे देखने का ऑप्शन ना होता, तो शायद उनका दिमाग ही घूम जाता!

ऐनिमे कौन-कौन सा? "ब्लू पीरियड", "फ्रैग्रंट फ्लावर", "कोमी कानॉट कम्यूनिकेट", "अ साइन ऑफ अफेक्शन", "माय सेनपाई इज़ अनॉयिंग" और "फ्रॉम मी टू यू" जैसे मजेदार सीरियल्स ने उनकी बोरियत और टेंशन दोनों को कम किया। एक पाठक ने तो यहां तक पूछ लिया, "भाई, काम के वक्त भी ऑफिस वाली ऐनिमे देखते हो?" इस पर राजू ने मजाक में जवाब दिया, "क्या करूं, काम भी तो ऐनिमे जैसा ही हो गया है!"

टेक्नोलॉजी का जुगाड़ और देसी सलाह

कुछ पाठकों ने सुझाया कि अगर सिस्टम में API नहीं है, तो पायथन का pyautogui या Selenium जैसी ट्रिक्स आज़माओ, ताकि टिकटें खुद-ब-खुद सुलझाई जा सकें। ऑफिस के माहौल में ये सलाह सुनना कुछ वैसा ही है जैसे कोई कहे, "पानी गरम नहीं आता? तो बाल्टी में उबाल लो!"

एक पाठक ने तो खूब चुटकी ली, "कंपनी के पैसे की सबसे बेहतरीन बर्बादी तो यही है – खुद सिस्टम की गलती और आदमी घंटों हाथ में हाथ धरे टिकट बंद कर रहा है!"

ऑडिटर के डर से ये सब सिस्टम तो लगा दिए जाते हैं, लेकिन असलियत में इन्हें सिर्फ चेकबॉक्स पूरा करने के लिए ही चलाया जाता है। जैसे हमारे यहां कई सरकारी दफ्तरों में फाइलें बस धूल फांकती रहती हैं, वैसे ही!

निष्कर्ष: टेक्नोलॉजी बढ़िया, लेकिन समझदारी उससे भी जरूरी

राजू की कहानी हर उस इंजीनियर की है, जो टेक्नोलॉजी की गड़बड़ियों के बीच अपनी सूझबूझ और थोड़ी-सी चतुराई से काम निकालता है। अगर ऑफिस में कोई अजीब सिस्टम आपको परेशान करे, तो घबराइए मत – कभी-कभी शोजो ऐनिमे, देसी जुगाड़ और थोड़ी-सी मस्ती बहुत काम आती है।

आपके ऑफिस में भी ऐसी कोई अतरंगी टेक्नोलॉजी है? या कभी ऐसे ही बोरिंग और बेकार काम में फंसे हैं? नीचे कमेंट में अपनी कहानी ज़रूर साझा करें – कौन जाने, अगली कहानी आपकी ही हो!


मूल रेडिट पोस्ट: 200 hours, 27, honestly, what's the difference?