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जब ग्राहक ने होटल का रेट खुद बढ़वाया: कॉरपोरेट बजट की अजब-गजब दुनिया

होटल की रिसेप्शन डेस्क पर रोज़ाना नए-नए किस्से बनते हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जिन्हें सुनकर दिमाग घूम जाता है। सोचिए, कोई ग्राहक आपसे कहे – “भैया, ये रेट तो बहुत कम है, थोड़ा बढ़ा दीजिए!” अब तक सुना था लोग मोलभाव करते हैं, लेकिन यहाँ तो उलटा ही मामला है।

होटल की रात और एक अनोखा ग्राहक

ये कहानी है एक होटल के फ्रंट डेस्क कर्मचारी की, जिनका दिमाग उस रात सचमुच चकरा गया। जिस ग्राहक के लिए साल भर की बुकिंग की थी, वह आया और जब उसे “फ्रीक्वेंट स्टे रेट” (मान लीजिए 70 रुपए) बताया गया, तब वह चुपचाप सोचने लगा। कर्मचारी ने सोचा, शायद रेट ज़्यादा है, या कोई गड़बड़ है। लेकिन ग्राहक बोला – “अगर मैं ऑफिस में ये रेट दिखाऊँगा, तो वे पूछेंगे कि हर जगह इतना कम रेट क्यों नहीं मिल सकता। आप ज़रा रेट बढ़ा दीजिए, कम से कम थोड़ा।”

भैया, यहाँ तो ग्राहक खुद अपनी जेब से और पैसे देने को तैयार था! कर्मचारी ने दस रुपए बढ़ाकर बात बनाई और दोनों खुश। लेकिन पढ़ने वालों, ये मामला जितना मज़ेदार है, उतना ही कॉरपोरेट कल्चर की गहराई को दिखाता है।

कॉरपोरेट बजट: “यूज़ इट या लूज़ इट” का खेल

अब आप सोच रहे होंगे, आखिर ये हुआ कैसे? असल में बड़ी कंपनियों और सरकारी दफ्तरों में बजट का बड़ा अजीब नियम चलता है – “यूज़ इट या लूज़ इट”, यानी जितना बजट मिला है, अगर सब खर्च न हुआ तो अगले साल उतना ही काट लिया जाएगा।

एक मजेदार कमेंट में किसी ने बताया, “हमारे ऑफिस में हर साल फाइनेंशियल ईयर के एंड में सब नया फर्नीचर, स्टेशनरी खरीदते थे, ताकि बजट कम न हो। एक बार तो हमारे बॉस बोले – ‘अरे, एयरमैन, आज ही 50,000 खर्च करवा दो, वरना अगले साल कट जाएगा!’”

एक और ने अपने अनुभव साझा किए – “हमारी यूनिवर्सिटी में साल के आखिरी दिनों में स्टेशनरी का एक्सचेंज चलता था – पेन दो, पेपर लो! ऐसा न हो कि बजट बच जाए।”

यही वजह है कि होटल में कम रेट दिखाने का मतलब होता है – अगले साल का बजट कट! और अगर एक जगह सस्ता कमरा मिला, तो मैनेजमेंट कहेगा, ‘हर जगह यही रेट चाहिए।’

यात्रा नीति: सुविधा भी, सुरक्षा भी

कॉरपोरेट और सरकारी यात्राओं में खर्च का हिसाब-किताब बड़ी बारीकी से देखा जाता है। कई बार ये नियम इतने उलझे होते हैं कि कर्मचारी खुद परेशान हो जाते हैं। एक कमेंट में लिखा – “हमने कर्मचारी को 79 रुपए का रेट दिया, उसने खुद कहा 99 ही रहने दीजिए, वरना ऑफिस वाले सोचेंगे कि अब और सस्ते होटल में रहो।”

दूसरे ने जोड़ा – “बजट बनाने वाले लोग कभी खुद यात्रा नहीं करते। उन्हें लगता है, सड़क पर घूमना कोई ऐश है। लेकिन हकीकत में घर से दूर, लगातार यात्राओं में सही होटल, सुरक्षा और आराम भी जरूरी है।”

एक ने तो यहाँ तक कहा, “हमारी कंपनी में होटल की रसीद में रेट बढ़वा लेते थे, ताकि पर-डायम (प्रतिदिन खर्च) बढ़े और अगले साल की सुविधा बनी रहे।”

भारतीय संदर्भ: क्यों मायने रखता है ‘ज़्यादा देना’?

अगर आप सोच रहे हैं कि ये सिर्फ विदेशों में होता है, तो ज़रा अपने ऑफिस या सरकारी विभाग का हाल देख लीजिए। यहाँ भी बजट के आखिरी महीने में “खर्चा पूरा करो” का अभियान चलता है। कहीं नया कंप्यूटर, कहीं स्टेशनरी, तो कहीं इन्फ्रास्ट्रक्चर को लेकर खरीदारी हो जाती है – सिर्फ इसलिए कि अगले साल बजट कम न हो।

हमारे यहाँ भी सरकारी दफ्तरों में आखिरी महीने में “बिल बनवाओ, खर्च दिखाओ” का रिवाज़ है। स्कूलों में फील्ड ट्रिप भी अकसर इसी वजह से हो जाती है – “बजट बचा है, खर्च कर दो।”

निष्कर्ष: अजब है ये कॉरपोरेट और सरकारी दुनिया

कहानी से यही समझ आता है कि ग्राहक हमेशा कम रेट की तलाश में नहीं होता। बड़ी कंपनियों और सरकारी दफ्तरों के नियम-कायदे ऐसे हैं कि कभी-कभी लोग खुद अपने लिए महंगा बिल बनवाने लगते हैं। होटल कर्मचारी भी हैरान, ग्राहक भी संतुष्ट – और बजट का खेल चलता रहता है।

तो अगली बार जब आप सुनें कि कोई ग्राहक खुद रेट बढ़वा रहा है, तो समझ जाइए – ये कॉरपोरेट बजट का करिश्मा है, मोलभाव का उल्टा रंग!

आपके ऑफिस में भी ऐसा कुछ हुआ है? या आपने कभी बजट के चक्कर में अजीबो-गरीब फैसले लिए हैं? नीचे कमेंट में ज़रूर बताइए, और अपने दोस्तों के साथ ये कहानी साझा करना न भूलें!


मूल रेडिट पोस्ट: The Damndest Thing Just Happened