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जब ऑफिस में मामूली सामान भी 'मैनेजर' की पहचान बन जाए: एक नेटवर्क एडमिन की कहानी

कार्यालय के साधनों से घिरे नेटवर्क प्रशासक की एनिमे चित्रण।
इस जीवंत एनिमे दृश्य में, एक नेटवर्क प्रशासक नई नौकरी की चुनौतियों का सामना कर रहा है, केवल आवश्यक सामान के साथ। जानें कि इस अनुभव ने उनके व्यक्तिगत कार्यालय सामान को काम पर लाने के दृष्टिकोण को कैसे आकार दिया।

ऑफिस की दुनिया में छोटे-छोटे सामानों का भी बड़ा महत्व होता है। कभी-कभी एक टिशू बॉक्स या कलरफुल पेन की मांग करना भी "बगावत" जैसी लगने लगती है। सोचिए, अगर आपके ऑफिस में सिर्फ मैनेजर को ही टिशू या हैंगर मिलें, बाकी सबको नहीं—तो कैसा महसूस होगा? आज की कहानी बिल्कुल ऐसी ही एक जिद्दी नेटवर्क एडमिन की है, जिसने सिस्टम को उसकी ही चाल में मात दे दी!

कहानी की शुरुआत: "मैनेजर" और "आम कर्मचारी" का फर्क

करीब 12-13 साल पहले एक सरकारी कंपनी में नए-नवेले नेटवर्क एडमिन की नौकरी लगी। ऑफिस में साज़ो-सामान नाम मात्र का था। नए-नए सिस्टम, नई कंपनी, और हर चीज़ के लिए लंबा-चौड़ा आवेदन। हमारे नायक ने कुछ आम चीज़ों—जैसे टिशू, कपड़े का हैंगर (ठंड थी, जैकेट रखने की जगह नहीं), हेडसेट, तीन रंग के पेन, वाइटबोर्ड और उसके मार्कर—की लिस्ट बनाकर सपोर्ट डिपार्टमेंट में दे दी।

लेकिन सपोर्ट डिपार्टमेंट (जो उस वक्त सिर्फ एक ही बंदा था) ने हर चीज़ पर अजीब तर्क दे डाले: - टिशू सिर्फ मैनेजर के लिए। - पेन सिर्फ नीला, वो भी हफ्ते में एक बार, और खाली पेन वापस लाओ तो ही मिलेगा। - वाइटबोर्ड, हैंगर—ये सब भी मैनेजर की "शान" हैं। - हेडसेट की मांग पर तो वो हंस ही पड़ा—"सरकारी कंपनी में ऐसे ही चलता है।"

यह सुनकर हमारे नेटवर्क एडमिन को समझ आ गया कि यहां टिशू और हैंगर भी किसी की 'औकात' दिखाने का जरिया हैं।

"अपना सामान, अपने पैसे": सिस्टम को मात देने की जिद्द

अब ऐसा नहीं कि ये छोटे-छोटे सामान कोई अफोर्ड नहीं कर सकता था। बस, बाकी लोग चुपचाप सिस्टम के आगे झुक गए थे। पर हमारे नायक ने ठान लिया—"अगर कंपनी नहीं देगी, तो मैं खुद ले आउंगा!"

अगले ही दिन वे अपने साथ एक खूबसूरत डिजाइन वाला टिशू बॉक्स, स्टाइलिश हैंगर, रंग-बिरंगे पेन, वाइट ग्लास बोर्ड, नए मार्कर, अपना गेमिंग हेडसेट और ऊपर से अपनी पसंदीदा मिठाइयों की प्लेट ले आए। ऑफिस की कुर्सी और डेस्क ऐसी चमक उठी कि आस-पास के सारे केबिन फीके पड़ गए—यहां तक कि मैनेजर के भी!

दिनभर में जितने भी मैनेजर और कर्मचारी उनके रूम में आए, सबकी आँखों में जलन साफ दिख रही थी। सबका पहला सवाल—"सपोर्ट डिपार्टमेंट ने तुम्हें ये सब कैसे दे दिया?"

जवाब था—"भिखारियों के बनाए हुए नियम हैं कंपनी के, ये सब मेरा खुद का है। और इसमें खर्चा क्या है, थोड़ा-सा पैसा और थोड़ा-सा स्वाभिमान!"

जब सिस्टम को खुद बदलना पड़ा

दूसरे ही दिन सपोर्ट डिपार्टमेंट का वही बंदा आया और बोला—"भाई, अपना सारा सामान घर ले जाओ। अब हम सबको वही सामान देंगे जो मैनेजर को मिलता है।"

थोड़ा चौंककर पूछा—"पर मैं तो मैनेजर नहीं हूँ।"

जवाब मिला—"रूल बदल गए हैं, अब हर किसी को ये सब मिलेगा।"

कहते हैं, कभी-कभी सिस्टम को बदलने के लिए बस एक इंसान की हिम्मत चाहिए होती है।

पाठकों की राय: क्या ये सिर्फ एक ऑफिस की बात है?

रेडिट पर इस कहानी को पढ़कर लोगों ने अपने अनुभव भी शेयर किए। एक पाठक ने कहा, "मेरे भाई के ऑफिस में भी पेन के लिए ऐसे ही सख्त नियम थे—केवल एक पेन, एक पेंसिल, एक हाइलाइटर। कोई ज्यादा लाया तो वापस ले लिया जाता!"

दूसरे ने लिखा, "छोटे-छोटे सामान पर कंजूसी करना कंपनी के लिए ज्यादा घाटे का सौदा है। सालभर में 300 रुपए बचाकर अगर कर्मचारी का 30,000 का प्रोडक्टिविटी नुकसान हो, तो क्या फायदा?"

एक और रोचक कमेंट था—"सरकारी दफ्तरों में तो ये हाल है कि कोई नया फाइलिंग कैबिनेट चाहिए, तो सालों इंतजार करो। हमलोगों ने चंदा इकट्ठा कर 20 डॉलर वाला कैबिनेट खरीदा, बाद में ऑफिस ने वही कैबिनेट 400 डॉलर में खरीदवाया—वो भी 'सबसे सस्ता' बताकर!"

कुछ ने तो ये भी कहा—"मैनेजर होना मतलब टिशू और वाइटबोर्ड तक की एक्सक्लूसिविटी, जैसे राजघराने की निशानी!"

हमारे दफ्तरों में ये समस्या क्यों?

भारतीय दफ्तरों में भी अक्सर देखा जाता है कि छोटी-छोटी चीज़ें—अच्छी कुर्सी, पेन, डेस्क—कर्मचारियों के 'पद' के हिसाब से दी जाती हैं। मानो सामान की क्वालिटी से ही किसी की काबिलियत नापी जाती हो।

कई बार तो लोग ऑफिस का माहौल ही सिस्टम के हिसाब से मान लेते हैं—"यही चलता है", "सरकारी है, ऐसे ही होगा", "कंपनी का पैसा बर्बाद नहीं करना"।

पर सोचिए—क्या पचास रुपए का टिशू बॉक्स या दो सौ का हेडसेट देने से कंपनी कंगाल हो जाएगी? या फिर इससे कर्मचारियों की खुशी और काम की गति बढ़ेगी?

निष्कर्ष: छोटी-छोटी चीज़ें, बड़ा बदलाव

इस कहानी से एक गहरी सीख मिलती है—कभी-कभी छोटी-छोटी चीज़ों पर ध्यान न देना, कंपनी के लिए बड़ी समस्या बन सकता है। कर्मचारियों को काम के लिए जरूरी सामान देना कोई 'फेवर' नहीं, बल्कि उनका अधिकार है।

और कभी-कभी, बस एक इंसान की पहल से पूरा सिस्टम बदल सकता है।

क्या आपके दफ्तर में भी ऐसे अजीब नियम हैं? क्या आपने भी कभी सिस्टम को उसकी ही चाल में मात दी है? नीचे कमेंट में जरूर बताइए—शायद आपकी कहानी भी किसी और को हिम्मत दे जाए!


मूल रेडिट पोस्ट: Can't get simple office accessories? I'll bring my own