जब ऑफिस ने डेकेयर को उसके ही खेल में मात दी – पार्किंग की जंग का दिलचस्प किस्सा
क्या आप कभी ऐसे पड़ोसी से मिले हैं जो आपकी भलाई का फायदा उठाता है और जब आप उसी की तरह व्यवहार करते हैं तो उसे मिर्ची लगती है? आज हम आपको एक ऐसी कहानी सुनाने जा रहे हैं जहाँ ऑफिस और डेकेयर के बीच पार्किंग को लेकर ऐसा ही ताना-बाना बुना गया कि हर कोई हैरान रह गया।
ऑफिस बनाम डेकेयर – एक आम लेकिन अनोखी जंग
कहानी शुरू होती है एक छोटे से ऑफिस से, जहाँ सिर्फ 8 लोग काम करते हैं – वकील, सीए, और प्रोफेशनल्स। इनके ऑफिस के पास कुल 24 पार्किंग स्पॉट्स हैं, जो लीज़ के मुताबिक सिर्फ इन्हीं के लिए रिज़र्व्ड हैं। दूसरी ओर, उसी बिल्डिंग में एक डेकेयर भी है, जिसके पास सिर्फ 10 पार्किंग स्पॉट्स हैं। अब भारतीय मोहल्लों की तरह दोनों पड़ोसी ‘शांति’ से रह रहे थे – ऑफिस वाले अपने ज़रूरत के मुताबिक पार्किंग करते, बाकी जगहों पर डेकेयर के स्टाफ और मम्मी-पापा गाड़ियाँ खड़ी कर देते।
ऑफिस मालिक बड़े दिलवाले थे, उन्हें बच्चों की चहलकदमी और सुबह-शाम की हलचल अच्छी लगती थी। लेकिन कहते हैं न, “अति सर्वत्र वर्जयेत।” एक दिन ऑफिस मालिक देर से पहुँचे, देखा तो पूरा उनका पार्किंग एरिया बच्चों और उनके माता-पिता से गुलजार है। ‘चलो, आज मैं भी डेकेयर की पार्किंग में गाड़ी लगा लेता हूँ’ – यही सोचकर उन्होंनें अपनी पुरानी नीली गाड़ी वहाँ खड़ी कर दी।
जब खेल पलटा – ‘तुम हमारे यहाँ मत आओ, लेकिन हम तुम्हारे यहाँ आते रहेंगे!’
पहले दिन तो सब ठीक रहा, लेकिन दूसरे दिन डेकेयर की मैनेजर ने ऐसे घूरा जैसे घर में बिल्ली दूध पी जाए। और हफ्तेभर बाद तो हद ही हो गई – ऑफिस मालिक की गाड़ी बिना किसी सूचना के टो करवा दी गई! 600 डॉलर (यानि लगभग 50 हज़ार रुपये) का चूना लग गया।
अब ज़रा सोचिए, आपके साथ ऐसा होता तो आप क्या करते? कई पाठकों ने यही कहा – “भैया, उसी दिन मैनेजर की गाड़ी खींचवा देते!” लेकिन ऑफिस मालिक शांत रहे। उन्होंने मैनेजर से बात करने की कोशिश की – ‘कम-से-कम पहले बोल तो देतीं, माफ़ी तो मांगतीं!’ लेकिन मैडम ने फिर से वही रटा-रटाया जवाब दिया – ‘हमारे यहाँ सिर्फ स्टाफ और पैरेंट्स की गाड़ियाँ लगेंगी, आप अपनी रिज़र्व्ड पार्किंग में ही जाएँ।’
यहाँ एक कमेंट था, “ऐसे लोग सोचते हैं कि सामने वाला कोई अंजान है, असल में वो वही इंसान है जिसने सालों तक उनकी सुविधा के लिए दरवाज़ा खोला था।” बिल्कुल सही!
असली बदला – ‘जैसे को तैसा’ का मास्टरस्ट्रोक
कई लोग सोच रहे थे – ‘अब तो ऑफिस वाले भी डेकेयर वालों की गाड़ी टो करवाएँगे।’ लेकिन भाई साहब ने बड़ा खेल खेला! उन्होंने बिल्डिंग के मालिक से (थोड़ा सा बहाना बनाकर) कहा कि लाइसेंसिंग रेग्युलेशन के लिए अब पार्किंग में गेट लगाना ज़रूरी है, जिसमें सिर्फ ऑफिस के स्टाफ या मेहमान ही घुस सकते हैं। बिल्डिंग मालिक ने भी तुरंत हामी भर दी, और दो हफ्ते में गेट लग गया।
पहले ही दिन नज़ारा ऐसा था कि ‘सारे रंग मंच पर थे, पर कोई स्क्रिप्ट नहीं!’ डेकेयर स्टाफ बार-बार गेट का बटन दबाते, कुछ इधर-उधर घबराकर गाड़ी घुमाते, पैरेंट्स को आधा किलोमीटर दूर पार्किंग में गाड़ी खड़ी करनी पड़ी। कुछ लोग बोले – “अब पैरेंट्स की सुबह-शाम वॉकिंग हो जाएगी, सेहत के लिए अच्छा है!”
एक पाठक का कमेंट बड़ा शानदार था – “आपने सीधा टो नहीं करवाया, बल्कि ऐसा सिस्टम खड़ा कर दिया कि अगले 5-7 साल तक डेकेयर वाले आपकी मर्जी के बिना घुस नहीं सकेंगे। कभी-कभी लंबा खेल ही असली जीत दिलाता है!”
रिश्तों में मिठास या कड़वाहट – सब संवाद पर निर्भर
इस कहानी में सबसे बड़ा सबक यही है कि अगर शुरू में डेकेयर की मैनेजर थोड़ा विनम्र, समझदार और बात करने वाली होती, तो शायद यह नतीजा न आता। एक पाठक ने बढ़िया लिखा – “कभी-कभी सिर्फ दो मिनट की शांति और बातचीत, सालों की परेशानियों से बचा सकती है।” हमारे यहाँ भी मोहल्लों में अक्सर ऐसा होता है – पड़ोसी से थोड़ी सी बातचीत, और सब कुछ हल। लेकिन जब कोई अपनी अकड़ में आ जाता है, तो फिर ‘हिसाब बराबर’ करने में देर नहीं लगती।
यहाँ एक और शानदार कमेंट था – “आपने सामने वाले को मौका दिया, लेकिन उसने आपकी भलाई को आपकी कमजोरी समझा। अब डेकेयर के माता-पिता परेशान, स्टाफ परेशान… और आप अपनी खिड़की से मुस्कुराते हुए उनकी अफरातफरी का मज़ा ले रहे हैं!”
निष्कर्ष – क्या सीख मिली?
इस पूरे किस्से से हमें यही सीख मिलती है कि दूसरों की अच्छाई का नाजायज फायदा उठाना अंत में महंगा पड़ सकता है। ऑफिस मालिक ने कोई सीधा झगड़ा या बदतमीज़ी नहीं की, बस अपने अधिकारों की रक्षा की – वो भी पूरे कायदे-कानून से। और यही है ‘मैलिशियस कंप्लायंस’ का असली मज़ा – जब आप नियमों का पालन करते हुए सामने वाले को उसकी ही चाल में फँसा देते हैं।
तो दोस्तों, अगली बार जब आप सोचें कि पड़ोसी की भलमनसाहत हमेशा बनी रहेगी, तो थोड़ा ध्यान रखें – कहीं आपकी अकड़ आपको अकेला न कर दे!
आपकी मोहल्ले या ऑफिस में भी कभी ऐसा कोई किस्सा हुआ है? कमेंट में ज़रूर बताइएगा – और हाँ, पड़ोसियों से बनाकर रखिए, नहीं तो ‘पार्किंग गेट’ कब लग जाए, पता भी नहीं चलेगा!
मूल रेडिट पोस्ट: Daycare wants my office to park in our reserved spaces while they use ours too. We did.