जब एम्बुलेंस ड्राइवर की ज़िद ने मचाया आफत – 'ये स्ट्रेचर मेरा है!
ऑफिस की राजनीति और सहकर्मियों की नोकझोंक तो आपने कई दफा देखी होगी, लेकिन अस्पताल या मेडिकल टीम में भी कभी-कभी ऐसी मज़ेदार घटनाएँ हो जाती हैं कि सुनकर हंसी आ जाए! आज की कहानी है एक ऐसे एम्बुलेंस ड्राइवर की, जिसे अपने ट्रक और स्ट्रेचर (को हम आमतौर पर स्ट्रेचर-गाड़ी या गूर्नी कहते हैं) से इतना लगाव था कि उसके आगे उसे अपने बाकी साथियों की कोई परवाह नहीं थी। इस छोटे-से ‘दांव-पेंच’ में जो घमासान मचा, वो आपको ऑफिस की मीठी-तीखी राजनीति की याद दिला देगा।
ड्राइवर साहब की ‘खास’ पसंद – ट्रक नंबर 26 और उनका स्ट्रेचर
हर दफ्तर में कोई न कोई ऐसा होता है, जिसे हर चीज़ अपनी ही पसंद की चाहिए। यहाँ भी कुछ ऐसा ही था। ड्राइवर साहब को ट्रक नंबर 26 और उसका एक खास स्ट्रेचर चाहिए—जिस पर बाकायदा उनका नाम लिखा हुआ था! बाकी ड्राइवर तो जैसे-तैसे जो भी गाड़ी और स्ट्रेचर मिले, उसी से काम चला लेते थे, लेकिन इन महाशय की अलग ही शान थी। एक तरह से ‘मालिकाना हक’ दिखाने का शौक!
अब हुआ यूँ कि ट्रक नंबर 26 खराब हो गया और रिपेयर के लिए भेज दिया गया। साहब को मजबूरन ट्रक नंबर 29 दिया गया। ऑफिस के एक साथी ने, जो हमारी कहानी के हीरो हैं, उनकी खास चीज़ें ट्रक 29 में शिफ्ट कर दीं। बाकी किसी ड्राइवर के लिए न तो ऐसा कोई जुगाड़ होता है, न ही इतनी तवज्जो!
‘ना छूओ मेरा सामान’ – जब जिद पर आ जाए कोई
जैसे ही अगले दिन का शेड्यूल आया, पता चला ट्रक 29 किसी और को अलॉट हो गया है और पुराने ड्राइवर की गाड़ी अभी भी वर्कशॉप में है। अब हमारे हीरो ने ड्राइवर साहब को बोला, “आपका स्ट्रेचर और सामान मैं ट्रक 34 में शिफ्ट कर रहा हूँ, कल के लिए।” बस, यहीं से बवाल शुरू!
ड्राइवर साहब भड़क उठे—“मेरा सामान मत छूना! मुझे कोई और ट्रक नहीं चाहिए, सब यहीं रहेगा!” अब हीरो ने सोचा, “जो हुक्म आपके सरआँखों पर!” स्ट्रेचर और सामान वहीं ट्रक 29 में छोड़ दिया। लेकिन असली ट्विस्ट अभी बाकी था—ट्रक 29 अगले दिन ड्राइवर साहब के आने से एक घंटा पहले ही किसी और के साथ, उनके पसंदीदा स्ट्रेचर समेत, निकल चुका था! अब ड्राइवर साहब के पास न ट्रक था, न स्ट्रेचर!
सहकर्मियों की चुटकी – ‘ये स्ट्रेचर मेरा है, कंपनी का नहीं!’
रेडिट पोस्ट पर एक यूज़र ने बढ़िया कमेंट किया—“कभी-कभी किसी चीज़ को अपनी मान लेने से दिक्कतें ही आती हैं। कंपनी का सामान, लेकिन अपनापन इतना कि जैसे दहेज में लाए हों!” एक और ने मजाक में लिखा, “अगर रोज़-रोज़ यही स्ट्रेचर उसके साथ घूमता रहा, तो उसकी पीठ भी थक जाएगी!”
एक और कमेंट में बड़ा मजेदार सवाल था—“क्या सच में ऑक्सीजन छोड़कर जाना आग लगने का खतरा नहीं है?” (असल में ड्राइवर साहब अक्सर ऑक्सीजन सिलेंडर खुला छोड़ देते थे, जो वाकई खतरनाक हो सकता है!) इसके जवाब में एक साथी ने लिखा, “भाई, ये तो किसी छोटे बच्चे जैसी लापरवाही है, जिसे बार-बार टोकना पड़े!”
ऑफिस की राजनीति, जिद और ‘मालिकाना हक’ – हर जगह एक जैसे किस्से
अगर आप किसी भी दफ्तर या अस्पताल में काम करते हैं, तो ये किस्सा आपके लिए नया नहीं होगा। हर जगह कोई-न-कोई ऐसा होता है, जिसे लगता है कि “ये मेरी चीज़ है, बाकी सब जाए भाड़ में!” ऐसे लोगों के साथ काम करना किसी जुगाड़ से कम नहीं। जो लोग नियमों के साथ खेलते हैं, उन्हें कभी-कभी उनकी जिद का स्वाद चखाना भी जरूरी होता है—जैसे हमारे हीरो ने किया।
रेडिट पर किसी ने लिखा, “ये तो उस बच्चे जैसा है, जो अपना खिलौना किसी को छूने नहीं देता, लेकिन खुद खेलने भी नहीं आता!” यानी, ‘ना खेलेगा, ना खेलने देगा!’ बहुत से लोगों ने पूछा, “आखिर में हुआ क्या?” वैसे तो कहानी का अगला भाग अभी आना बाकी है, लेकिन इतना तय है कि ड्राइवर साहब को अपनी जिद का मज़ा जरूर चखना पड़ा होगा।
मज़ेदार निष्कर्ष – आपकी जिद, आपकी आफत!
कहानी से सीख ये मिलती है कि कभी-कभी अपनी जिद और ‘मालिकाना हक’ के चक्कर में खुद ही फंस जाते हैं। ऑफिस हो या अस्पताल, टीम वर्क सबसे जरूरी है। और हाँ, दूसरों के लिए भी थोड़ा सोचना चाहिए—वरना कभी न कभी स्ट्रेचर आपके बिना ही निकल जाएगा!
आपके ऑफिस में भी ऐसे कोई महारथी हैं? या आपने कभी किसी की ऐसी जिद का मज़ा उठाया है? कमेंट में जरूर बताइए—क्योंकि ऐसी कहानियाँ पढ़ने-सुनने का मज़ा ही कुछ और है!
मूल रेडिट पोस्ट: who's cot is it anyway!?