विषय पर बढ़ें

जब इतिहास के प्रोफेसर की अकड़ से हुआ टकराव: एक छात्र की चालाकी भरी जीत

एक विकलांग छात्र इतिहास की व्याख्यान में, सीखने में दृढ़ता और सहनशीलता को दर्शाता है।
यह फ़ोटो-यथार्थवादी छवि इतिहास की व्याख्यान के एक क्षण को कैद करती है, जहां टॉरेट सिंड्रोम और ADHD से ग्रसित छात्र सीखने की चुनौतियों का सामना कर रहा है। उनका चेहरा विषय में रुचि दिखाता है, जो विपरीत परिस्थितियों में दृढ़ता और मनोबल को दर्शाता है।

कभी-कभी हमारी ज़िंदगी में ऐसे लोग आते हैं, जो खुद को हर चीज़ का विशेषज्ञ समझते हैं। खासकर पढ़ाई-लिखाई के मामले में कुछ शिक्षक तो खुद को ‘ज्ञान का देवता’ ही मान बैठते हैं। लेकिन क्या हो, जब उनकी अकड़ किसी ऐसे छात्र से टकरा जाए, जो अपनी कमज़ोरी को ही अपनी ताकत बना ले? आज की कहानी Reddit पर वायरल हुए एक ऐसे अमेरिकी छात्र की है, जिसने अपने इतिहास के प्रोफेसर को उसकी ही शर्तों में उलझा दिया।

मेरी कहानी, मेरी शर्तें: जब लिखना बना सज़ा

हमारे नायक को Tourette syndrome और ADHD है—यानि दिमाग़ और शरीर का तालमेल थोड़ा अलग किस्म का। हिंदी में कहें तो, ध्यान भटकने और बार-बार अनजाने में हरकतें करने की बीमारी। इसके साथ-साथ, हाथ से लिखना उसके लिए किसी सज़ा से कम नहीं। जैसे ही पेंसिल हाथ में आती, हाथ में ऐसा दर्द और जकड़न होती कि अक्षर बड़े होते जाते और लिखने का मन पूरी तरह उचट जाता। उसकी माँ मज़ाक़ में कहती थीं—“तेरी पढ़ाई का सबसे बड़ा दुश्मन ये पेंसिल है!”

कई लोग सोचेंगे—अरे, ये तो बहाना है! लेकिन Reddit पर एक अन्य यूज़र ने बताया कि उसके हाथ में भी लिखने पर तेज़ दर्द होता है, क्योंकि उसकी उंगलियाँ ज़्यादा लचीली (हाइपरमोबाइल) हैं। यहाँ तक कि उसे परीक्षा में उंगलियों में पट्टी बाँधकर लिखना पड़ता था! कई और लोगों ने भी लिखा कि उन्हें भी लिखने में दर्द होता है, और कंप्यूटर पर टाइपिंग से बहुत राहत मिलती है। यही वजह है कि अमेरिका-यूरोप में विकलांग छात्रों के लिए विशेष सुविधाएँ (accommodations) मिलती हैं—जैसे नोट्स लेने के लिए सहायक, क्लास रिकॉर्डिंग, या ज़्यादा समय।

प्रोफेसर की “ज्ञान की दुकान” और छात्र की चालाकी

सब कुछ ठीक चल रहा था, जब तक इतिहास की क्लास में एक पुराने ज़माने के ‘गुरुजी’ से पाला नहीं पड़ा। नाम भी ऐसे कि जैसे किसी ब्रिटिश-कालीन सैनिक अफसर का हो! पढ़ाने में तो माहिर, लेकिन सोच में घनघोर ‘अकड़’। उन्होंने छात्र को नोट्स के लिए अपना सहायक दे रखा था, लेकिन जैसे ही देखा कि छात्र खुद नोट्स नहीं बना रहा, भड़क उठे—“असली पढ़ाई तो लिखने से ही होती है!” और धमकी दे डाली—आगे से कोई नोट्स नहीं मिलेंगे।

अब छात्र ने भी ठान लिया, गुरुजी को उनकी ही भाषा में जवाब देगा। उसने झुककर समझाया कि उसकी पढ़ाई का तरीका अलग है—वो सुनकर और देखकर ज़्यादा समझता है। लेकिन गुरुजी कहाँ मानने वाले थे! आखिरकार समझौता हुआ—छात्र टेप रिकॉर्डर लाएगा, और क्लास रिकॉर्ड करेगा, तब जाकर नोट्स मिलेंगे।

यहाँ से असली खेल शुरू हुआ! छात्र हर हफ्ते टेप रिकॉर्डर ले आता, लेकिन कभी भी रिकॉर्डिंग सुनता नहीं था। बस, टेप अपने आप चलती जाती, आधी क्लास में भर जाती, अगली बार उलटकर फिर रिकॉर्डिंग कर लेता। यानी ‘नोट्स लिखने’ का दिखावा, लेकिन असल में अपनी सुविधा से काम। प्रोफेसर को भी संतुष्टि हो गई—“चलो, बच्चा नियम मान रहा है,” और नोट्स मिलते रहे!

विकलांगता और पढ़ाई: हमारी सोच कितनी बदल रही है?

इस कहानी के नीचे Reddit पर कई लोगों ने दिलचस्प टिप्पणियाँ कीं। एक यूज़र ने लिखा—“शिक्षकों को आज भी विकलांगता की समझ उतनी नहीं है, जितनी डॉक्टरों को है।” सच भी है, भारत में भी बहुत से स्कूल-कॉलेज ऐसे हैं, जहाँ ADHD, dysgraphia (लिखने में असमर्थता) जैसी समस्याएँ मज़ाक का विषय बन जाती हैं। एक माँ ने बताया कि उसके बेटे को भी लिखने की बीमारी है, लेकिन कंप्यूटर मिलने के बाद उसका आत्मविश्वास लौट आया।

यहाँ तक कि एक यूज़र ने तो ये भी लिखा कि—“हमारे देश में भी कई लोग लिखने की समस्या को पहचान ही नहीं पाते। घरवाले भी ‘आलसी’ या ‘कमज़ोर’ समझ लेते हैं।” सोचिए, अगर ऐसे छात्रों को भी सुविधा मिल जाए, तो कितनी ज़िंदगियाँ बदल सकती हैं!

गुरुओं की अकड़ और छात्रों की जुगाड़: हर जगह एक जैसी!

इस कहानी में प्रोफेसर के व्यवहार ने एक और मुद्दा उभारा—कुछ शिक्षकों की “मैं ही सब जानता हूँ” वाली सोच। एक बार छात्र ने अपनी दस पीढ़ी पुरानी पूर्वज (Salem की “witch”) का जिक्र किया, तो प्रोफेसर ने पूरी क्लास में कह दिया—“तीन-चार पीढ़ी से ज्यादा किसी का वास्ता नहीं होता!” अब भला, इंडिया में तो खानदान और कुल-गोत्र की बात पर लोग अपनी जान छिड़कते हैं! यहाँ तो दादी-नानी की कहानियाँ पीढ़ियों तक चलती हैं—“हमारे परदादा जी ने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी!”

कुल मिलाकर, Reddit की इस कहानी में छात्र ने गुरुजी की अकड़ के सामने चुपचाप, लेकिन चालाकी से अपनी सुविधा निकाल ली। न तो बगावत की, न ही नियम तोड़े, बस अपने हक़ का इस्तेमाल थोड़ा अलग तरीके से किया। और यही है ‘malicious compliance’—यानि नियम मानना, लेकिन अपने हिसाब से!

निष्कर्ष: आपकी राय क्या है?

आपने कभी ऐसे गुरुओं से पाला पड़ा है, जो “मेरी मर्ज़ी ही कानून” वाला रवैया दिखाते हैं? या फिर आप भी कभी किसी सिस्टम की जटिलता में फँसकर, अपनी जुगाड़ से रास्ता निकाला है? नीचे कमेंट में ज़रूर बताइए। और हाँ, अगली बार जब कोई आपकी कमज़ोरी को आपकी ताकत मानने से इनकार करे, तो ये कहानी याद रखिए—कभी-कभी जुगाड़ ही सबसे बड़ा हथियार होता है!


मूल रेडिट पोस्ट: Malicious compliance in history lecture