ऑफिस की राजनीति में जब ट्रेनर ने दिखा दिया असली दम
अगर आप कभी सरकारी या बड़ी कंपनियों में काम कर चुके हैं, तो आप समझ सकते हैं कि ऑफिस की राजनीति और वहाँ के ड्रामे किस हद तक जा सकते हैं। कभी-कभी तो लगता है, जैसे ऑफिस नहीं, कोई टीवी सीरियल चल रहा है! आज की कहानी भी कुछ ऐसी ही है – जहाँ एक अनुभवी ट्रेनर को, अपने ही जूनियर साथियों और ऊपरी अधिकारियों की बेवकूफ़ी का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने भी ऐसा जवाब दिया कि सब हैरान रह गए।
जब मेहनत का बदला बदतमीज़ी से मिला
हमारी कहानी के नायक (या नायिका), एक अनुभवी कर्मचारी हैं, जो सरकारी विभाग में काम करते हैं। भले ही उनका पद ‘ट्रेनी’ से एक रैंक नीचे हो, लेकिन अनुभव और ज्ञान के दम पर वो सालों से ज़रूरत पड़ने पर ट्रेनिंग भी देते आ रहे हैं। हर बार उन्हें थोड़ा-बहुत बोनस या इनाम भी मिल जाता था।
अब हाल ही में ऑफिस में एक नई हवा चली – विभाग को केंद्रीय हब बनाने की तैयारी थी, इसलिए कई नए लोग भर्ती हुए। और फिर आया ट्रेनिंग का जिम्मा – एक बार फिर हमारे हीरो के कंधों पर। पहली बैच तो बढ़िया निकली – नए लोग मेहनती, शिष्ट और सीखने के लिए तैयार थे। लेकिन दूसरी बैच... बस पूछिए मत!
ये नए रंगरूट न सिर्फ़ लेट आते, बल्कि ट्रेनिंग के दौरान मोबाइल में लगे रहते, शोर मचाते और बात-बात पर उलझते। जैसे किसी स्कूल की क्लास हो, जहाँ बच्चों को टीचर की बिल्कुल फिक्र नहीं! हमारे हीरो ने जब ये सब अपने मैनेजर को बताया, तो जवाब मिला – “अरे, बच्चे हैं... चलता है, आप ठीक कर रहे हैं।” अब बताइए, ये कौन सी समझदारी है?
जब सब्र का बाँध टूटा
एक हफ्ते तक रोज़-रोज़ ये तमाशा झेलने के बाद, आख़िरकार एक दिन हमारे ट्रेनर का भी पारा चढ़ गया। दो ट्रेनी बार-बार बहस कर रहे थे – “आप तो गलत पढ़ा रहे हैं, हमें तो ये आता है!” अब भला, जिसने खुद सालों उस फील्ड में काम किया हो, उसको ये बच्चे ज्ञान बाँट रहे! गुस्से में ट्रेनर ने ज़ोर से ट्रेनिंग मटेरियल ज़मीन पर फेंका और चिल्ला दिए – “मैं यहाँ ट्रेनर हूँ, ये ड्रामा बंद करो!”
बस, फिर क्या था – दो ट्रेनी गुस्से में बाहर निकल गए और शिकायत लेकर सीधा मैनेजर के पास पहुँच गए। ट्रेनर ने भी सोचा, चलो अपनी बात रख दूँ, लेकिन वहाँ पहुँचते ही देखा – दोनों पहले से ही चुगली लगा रहे हैं। ट्रेनर ने जिस मटेरियल पर बहस हुई थी, वो सीधा बॉस के हाथ में पकड़ा दिया – “आपको इसकी ज़रूरत पड़ेगी।”
मैनेजमेंट के दोहरे मापदंड
ट्रेनर वापस लौटे तो देखा कि बाकी ट्रेनी भी जा चुके हैं। जैसे ही वो निकलने लगे, तभी एक सीनियर मैनेजर आईं और दस मिनट तक डाँटती रहीं – “ये कौन सा बर्ताव है? आपको तो मर्यादा में रहना चाहिए।” ट्रेनर ने अपनी सफाई देने की कोशिश भी की, लेकिन किसी ने सुनी ही नहीं। ऊपर से मामला ‘गंभीर दुर्व्यवहार’ की जाँच तक पहुँच गया – यानी नौकरी जाने का खतरा!
भगवान का शुक्र कि एक और बड़े अधिकारी ने मामला शांत कर दिया – “मैनेजर नई है, उसका अनुभव नहीं था, आगे से ध्यान रखना।” लेकिन हमारे ट्रेनर का मन खट्टा हो गया। जिस बंदे ने सालों मेहनत की, उसी की बात अनसुनी, और बच्चों की नासमझी पर महकमे का भरोसा!
बदले का मीठा स्वाद – “अब मुझे माफ कीजिए, मैं ट्रेनर नहीं!”
कुछ हफ्ते बीते। ऑफिस में फिर से नई भर्ती हुई और ट्रेनिंग की ज़रूरत पड़ी। वही सीनियर मैनेजर, जिनका रवैया पहले अकड़ू था, अब बड़ी मुस्कान के साथ आईं – “दो हफ्ते बाद ट्रेनिंग है, कमरा बुक कर लिया है...”
हमारे ट्रेनर ने भी शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया – “माफ कीजिए, मैं ट्रेनर नहीं हूँ। ये काम तो एक रैंक ऊपर वालों का है।” मैनेजर हक्की-बक्की रह गईं। अब चाहें जितना हाथ-पैर मार लें, ट्रेनर को मजबूर नहीं कर सकती थीं।
आखिरकार, दूसरे विभाग से एक बंदे को बुलाना पड़ा, जिससे ट्रेनिंग में देरी भी हुई, खर्चा भी बढ़ा और शिकायतें भी आईं – क्योंकि अनुभव और जानकारी की कमी थी। अब भुगतो! जैसा बोया, वैसा काटो।
कम्युनिटी की राय – “ऑफिस ड्रामा सब जगह एक सा!”
रेडिट पर इस कहानी ने खूब धमाल मचाया। एक यूज़र ने लिखा, “जब मैं पढ़ाता था, तो लेट आने वालों को खुद ही पस्त होने देता था। एक बार देर हो गई, तो क्लास के दरवाज़े बंद!” इस तरह के कड़े नियम भारत में भी कई कोचिंग संस्थानों और कॉलेजों में देखने को मिलते हैं – जहाँ लेट-लतीफी बर्दाश्त नहीं होती।
एक और कमेंट था – “ट्रेनर को कूड़ा समझा, और जब वो खुद हट गया, तो सब हैरान हो गए!” कई लोगों ने मैनेजमेंट के रवैये पर तंज़ कसा – “क्या सच में ऐसे लोगों को मैनेजर बना दिया?” और एक यूज़र ने तो यहाँ तक लिखा – “लगता है, बच्चों की भर्ती हो गई थी! किसी जॉब की ट्रेनिंग पर ऐसा बर्ताव, हैरानी की बात है।”
कुछ लोगों ने ट्रेनर की नाराज़गी को जायज़ तो माना, लेकिन ये भी कहा – “अपने आपे में रहना चाहिए था। गुस्से में रिएक्ट करना उल्टा आपके लिए भारी पड़ सकता है।” सच है, लेकिन कभी-कभी इंसान भी इंसान ही होता है, मशीन नहीं।
अंतिम विचार – आत्म-सम्मान सबसे बड़ा
इस कहानी से एक बड़ी सीख मिलती है – चाहे ऑफिस हो या घर, अगर आपकी मेहनत और इज़्ज़त को लोग नज़रअंदाज़ करें, तो कभी-कभी ‘ना’ कहना भी ज़रूरी है। अपने आत्म-सम्मान के लिए आवाज़ उठाना हर किसी का हक़ है। और जो लोग आपके बिना काम चला ही नहीं सकते, उन्हें आपकी कद्र करनी ही पड़ेगी – वरना भुगतो!
दोस्तों, आपके ऑफिस में भी ऐसे किस्से हुए हैं? क्या कभी आपको भी अपना ‘बदला’ मीठा मिला? कमेंट में जरूर बताइए। इस कहानी को अपने दोस्तों के साथ शेयर कीजिए, शायद उन्हें भी अपने ऑफिस के पुराने किस्से याद आ जाएँ!
मूल रेडिट पोस्ट: Treat me badly, then expect me carry on as if nothing happened? Uh, ok...