ऑफिस की राजनीति और छोटी बदले की बड़ी जीत: जब मैंने जानबूझकर लंबा सफर किया
ऑफिस की राजनीति किसे पसंद है? खासकर तब, जब कोई सीनियर सिर्फ नाम के लिए सीनियर हो और काम सब दूसरों के सिर मढ़ दे! ऐसे में कभी-कभी छोटी बदले वाली हरकतें ही दिल को सुकून देती हैं। आज की कहानी है एक महिला कर्मचारी की, जो अपने सीनियर को चुपचाप, बड़े ही मज़ेदार और देसी अंदाज़ में सबक सिखा देती है।
सोचिए, कोई आपके ऊपर अपना जिम्मा डाल दे, ऊपर से आपको गाड़ी भी चलानी पड़े? ऑफिस के लंचरूम की चाय की तरह ये बात भी गले के नीचे नहीं उतरती। लेकिन हमारी नायिका ने तो गजब कर दिया — बदले की आग में ऐसा देसी जुगाड़ लगाया कि बॉस भी हैरान रह गया!
छोटी बदले की बड़ी तैयारी – सफर लंबा, इरादा मजबूत
कहानी की नायिका रोज़ अपनी गाड़ी से ऑफिस जाती थी, जो उसके घर से सिर्फ 20 मिनट की दूरी पर था। लेकिन जैसे ही सप्लायर विज़िट का मामला आया — जो ऑफिस से एक घंटे दूर थी — सीनियर साहब ने सब जिम्मा उस पर डाल दिया। शिफ्ट टाइमिंग अलग, जिम्मेदारी अलग और ऊपर से ड्राइवर भी वही बने? अब ये तो हद ही हो गई!
सीनियर ने महीनों इशारों-इशारों में उसे गाड़ी चलाने के लिए उकसाया। कभी पूछते, "तुम उधर गई हो क्या?" कभी कहते, "मुझे ड्राइविंग पसंद नहीं..." लेकिन हमारी नायिका ने भी तय कर लिया था — "अब बस! चौकीदारी भी मैं, चौका-बर्तन भी मैं, और अब ड्राइवर भी मैं? कतई नहीं!"
चालाकी की मिसाल – बदले की आग में घंटा-भर की बस यात्रा
बस फिर क्या था, एक हफ्ता पहले ही उसने गाड़ी घर पर छोड़नी शुरू कर दी और रोज़ाना लोकल बस, ऑटो, ट्रेन – जो भी मिले – पकड़ के ऑफिस पहुंचने लगी। अब भले ही उसे एक घंटा ज्यादा लग रहा था, लेकिन अंदर से तो वो "बदले की आग" से फुल एनर्जी में थी। रास्ते में पसंदीदा पॉडकास्ट सुनना, बाहर का नज़ारा देखना – सब बोनस!
तीन दिन बाद मैनेजर ने पूछ लिया, "आजकल कार से क्यों नहीं आती?" जवाब मिला, "भैया शहर आए हैं, उनकी गर्लफ्रेंड भी आई है, तो कार उन्हें दे दी घूमने के लिए।" क्या कमाल का बहाना है! फिर नायिका ने एक ईमेल भी टाइप कर दिया — मैनेजर और सीनियर दोनों को — कि सप्लायर विजिट के लिए अब ट्रांसपोर्ट का कोई जुगाड़ नहीं है, क्या करें?
बॉस की डांट और सीनियर का चेहरा देखने लायक
अब खेल असली शुरू हुआ। मैनेजर को जब पता चला कि ट्रांसपोर्ट का कोई प्लान नहीं है और सीनियर ने सारा काम जूनियर पर डाल दिया है, तो गुस्से में आग-बबूला हो गया। बोला, "ये तुम्हारा आइडिया ऑफ 'फिगरिंग समथिंग आउट' है? ये बहुत शर्मनाक बर्ताव है!" सीनियर बेमन से कार लेकर खुद ड्राइवर बना और दोनों को सप्लायर के पास ले गया।
अगले दिन, जैसे ही सप्लायर विजिट खत्म हुई, हमारी हीरोइन फिर से अपनी कार में ऑफिस पहुंच गई – जैसे कुछ हुआ ही न हो। भाईसाब, ये तो वही बात हो गई – "मुंह देखता रह गया सीनियर, और बाज़ी मार गई जूनियर!"
कम्युनिटी के मज़ेदार रिएक्शन्स – “जले पे नमक छिड़का!”
रेडिट कम्युनिटी ने इस किस्से पर खूब हँसी उड़ाई। एक ने लिखा, "बदले की आग में जलती नायिका, कमाल का काम किया!" दूसरे ने कहा, "इतनी मेहनत सिर्फ बदला लेने के लिए – दिल से सलाम है!" कोई बोला, "कभी-कभी छोटी बदले वाली हरकतें ही ज़रूरी होती हैं, जब लोग अपनी जिम्मेदारी से भागते हैं।"
एक और ने तो चुटकी लेते हुए कहा, "एक घंटे का सफर भी मंजूर, लेकिन ऑफिस का ड्राइवर बनना नामंजूर!" वहीं किसी ने मज़ाकिया अंदाज़ में लिखा, "ऑफिस में ये लेवल की पेट्टीनेस अपनानी चाहिए, वर्ना लोग सिर चढ़ जाते हैं!"
भारतीय ऑफिस कल्चर में ये कहानी क्यों है खास?
हमारे देश में भी ऐसे किस्से रोज़ होते हैं — सीनियर्स काम टालते हैं, जूनियर्स झेलते हैं, और बॉस को जब तक आग न लगे तब तक सब चलता रहता है। लेकिन इस कहानी से ये सीख मिलती है कि कभी-कभी 'ना' कहना और जुगाड़ भिड़ाना भी एक कला है। और ये भी कि छोटी बदले की भावना (पेट्टी रिवेंज) अगर सही जगह इस्तेमाल हो, तो न सिर्फ मन को खुशी मिलती है, बल्कि सीनियर्स को भी आइना दिख जाता है।
एक पाठक ने तो कमाल की बात लिखी – "मैं भी खुद को तकलीफ दे दूंगा, लेकिन सामने वाले को सबक ज़रूर सिखाऊंगा!" बिल्कुल वही बात, जो हमारे दादी-नानी कहती थीं – "चटनी में मिर्ची ज़्यादा हो, तो अगली बार कोई उंगली नहीं लगाएगा!"
निष्कर्ष – आप क्या करेंगे?
तो दोस्तों, अगली बार जब कोई सीनियर या मैनेजर आप पर फालतू जिम्मेदारी डालने लगे, तो ये कहानी याद रखना। कभी-कभी छोटी बदले की पेट्टीनेस ही बड़े बदलाव लाती है। क्या आपके साथ भी ऐसा कुछ हुआ है? या आप भी कभी इस तरह से ऑफिस के किसी चालाकीबाज को चुपचाप सबक सिखा चुके हैं?
अपना अनुभव नीचे कमेंट में शेयर करें। और हाँ, अगली बार ऑफिस में 'फ्यूल्ड बाय स्पाइट' वाली एनर्जी लेकर जाना न भूलें — मजा ही आ जाएगा!
मूल रेडिट पोस्ट: I Took an Hour Commute To Get My Coworker in Trouble