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ऑफिस की राजनीति और इस्तीफे का बदला: एक छोटी सी जीत की कहानी

अगर आपने कभी किसी सरकारी दफ्तर या बड़ी कंपनी में काम किया है, तो ऑफिस की राजनीति और ग्रुपबाज़ी आपके लिए नई बात नहीं होगी। कभी-कभी तो लगता है जैसे टीमों में क्रिकेट मैच चल रहा हो—टीम ए बनाम टीम बी! ऐसे माहौल में जहाँ एक तरफ मैनेजर सिर्फ अपने “चहेतों” की सुनती है, वहीं दूसरी ओर बाकी कर्मचारी गिनती में ही नहीं आते। आज की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें एक कर्मचारी ने अपनी चतुराई से मैनेजर को ऐसा झटका दिया कि उसकी सारी प्लानिंग धरी की धरी रह गई।

ऑफिस का रंगमंच: टीम ए बनाम टीम बी

कहते हैं, “घर का भेदी लंका ढाए”—लेकिन यहाँ तो पूरा ऑफिस ही दो हिस्सों में बंटा था। टीम ए के लोगों को हर सुविधा, हर छुट्टी और प्रमोशन मिल जाता था, जैसे वो मैनेजर के रिश्तेदार हों। दूसरी तरफ टीम बी के लोग, जिनके लिए न छुट्टी थी, न सहानुभूति, बस काम और ताने!

एक कर्मचारी ने Reddit पर अपनी कहानी साझा करते हुए बताया कि कैसे उसके ऑफिस का माहौल रोज़-ब-रोज़ ज़हरीला होता जा रहा था। मैनेजर ने टीम ए को सिर पर बैठा रखा था और टीम बी की कोई सुनवाई नहीं थी। यहाँ तक कि जब टीम ए ने एक सहकर्मी को सस्पेंड कराने की साजिश रची, तो टीम बी की गवाही को तो जैसे कचरे में डाल दिया गया। क्या यह हमारे यहाँ की सरकारी दफ्तरों की याद नहीं दिलाता, जहाँ “अपनों” के लिए कानून अलग होते हैं?

छुट्टी के बहाने और मैनेजर की चालाकी

अब बात करते हैं असली खेल की। हमारे नायक ने सोचा कि नई नौकरी की तैयारी करते-करते छुट्टी ले ली जाए। उसने “लीव विदआउट पे” (LWOP) के लिए आवेदन किया—मतलब बिना वेतन के छुट्टी। लेकिन टीम बी का सदस्य होने की ‘सज़ा’ यही थी कि छुट्टी मिलनी तो दूर, आवेदन तक रद्द कर दिया गया। वहीं टीम ए की साथी को आराम से छुट्टी मिल गई। क्या यह पक्षपात नहीं?

इसी बीच, ऑफिस की “छुट्टी की लहर” चल पड़ी—कोई इस्तीफा दे रहा था, कोई प्रेग्नेंट होकर छुट्टी पर जा रही थी, तो कोई बीमार पड़ गया। महज़ एक महीने में 15 लोगों की टीम में से 4 लोग चले गए। अब मैनेजर की हालत ऐसी हो गई जैसे शादी में हलवाई के पास अचानक सब्ज़ी वाले कम पड़ जाएँ।

बदले की बिसात: सही समय पर दिया गया इस्तीफा

मैनेजर को डर था कि कहीं और लोग भी न चले जाएँ, इसलिए वह जल्द से जल्द इस्तीफा मंगवाने लगी ताकि HR को भेजकर जल्दी से नई भर्ती निकलवा सके। मगर हमारे नायक ने भी ठान लिया था—“अबकी बार, मेरी बारी!” उसने अपनी छुट्टियों का पूरा इस्तेमाल किया, आराम से छुट्टी मनाई और फिर पूरी औपचारिकता के साथ HR को इस्तीफा भेज दिया—वो भी तय तारीख के बाद!

यानी अब मैनेजर को तीन महीने (या उससे भी ज़्यादा) इंतज़ार करना पड़ेगा, नई भर्ती के लिए। इतने समय में ऑफिस का हाल क्या होगा, आप समझ ही सकते हैं।

एक Reddit यूज़र ने मज़ाकिया अंदाज़ में लिखा, “बिल्कुल सही किया, कभी-कभी छोटा सा बदला भी बहुत सुकून देता है।” वहीं, एक और ने कहा, “ये तो मैनेजमेंट की गलती है, कर्मचारियों की नहीं!”—क्योंकि स्टाफ की समस्या का जिम्मा हमेशा मैनेजमेंट का होता है, न कि कर्मचारियों का।

भारतीय ऑफिसों में भी है यही हाल?

अगर आप सोच रहे हैं कि ये सब सिर्फ विदेशों में होता है, तो ज़रा रुकिए। अपने यहाँ भी तो यही हाल है—कभी छुट्टी के लिए सिफारिश लगानी पड़ती है, कभी “अपनों” की वजह से प्रमोशन रुक जाती है। कई बार तो कर्मचारी सोचता है, “अब तो बस मौका मिलते ही इस्तीफा दे दूँ!” और जब सही समय आता है, तो उस मौके को ऐसे लपकता है जैसे IPL में आखिरी गेंद पर छक्का!

ऑफिस के ऐसे किस्से सुनकर लगता है कि “दाल में कुछ काला” नहीं, बल्कि पूरी दाल ही काली है। और जब कोई कर्मचारी अपने तरीके से छोटा सा बदला लेता है, तो दिल से यही निकलता है—“बहुत बढ़िया! कभी-कभी तो यही करना पड़ता है!”

निष्कर्ष: आपको क्या लगता है?

कहानी से हमें ये सीख मिलती है कि ऑफिस की राजनीति में हमेशा चुप रहना सही नहीं। कभी-कभी सही समय पर सही कदम उठाना ज़रूरी है—चाहे वह इस्तीफा ही क्यों न हो। और हाँ, जब भी ऑफिस में ऐसा पक्षपात दिखे, तो आवाज़ उठाना या सही मौका देखकर अपना हित साधना भी एक किस्म की बुद्धिमानी है।

आपका क्या अनुभव रहा है? क्या आपने कभी अपने ऑफिस में ऐसा कुछ देखा या किया है? नीचे कमेंट में जरूर बताइए। और अगर आपके पास कोई मज़ेदार ऑफिस किस्सा है, तो वो भी हमारे साथ साझा करें—क्योंकि “दर्द बांटने से कम होता है, और किस्से सुनने-सुनाने से ऑफिस की टेंशन भी!”

तो अगली बार जब ऑफिस में राजनीति दिखे, तो याद रखिए—सही वक्त पर सही चाल चलना भी एक कला है!


मूल रेडिट पोस्ट: Resigning with timing