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ऑफिस के नियमों का ऐसा चक्कर – जब चुपचाप बैठना ही सबसे बड़ा विद्रोह बन गया!

दूर के विभाग से कोड की प्रतीक्षा कर रहे एक परेशान कर्मचारी का कार्टून-3डी चित्रण, समय क्षेत्र की चुनौतियों को दर्शाता है।
इस जीवंत कार्टून-3डी चित्रण में, हम एक कर्मचारी को निराशा की स्थिति में देखते हैं, जो एक दूरस्थ विभाग से महत्वपूर्ण दस्तावेज़ कोड का इंतज़ार कर रहा है। समय क्षेत्र का अंतर आंतरिक नियमों और प्रक्रियाओं को समझने की इस जद्दोजहद में एक हास्यपूर्ण मोड़ जोड़ता है!

ऑफिस की कहानियों में अक्सर बॉस की डांट, मीटिंग्स की बोरियत और चाय की चर्चा होती है। लेकिन सोचिए, अगर आपके ऑफिस में ऐसा नियम हो जाए कि फाइल का नाम रखना भी किसी सरकारी प्रक्रिया जैसा जटिल हो जाए, तो? जी हां, आज हम आपको सुनाएंगे एक ऐसी ही कहानी, जिसमें नियमों की उलझन और समय के साथ बदलती नीतियों का स्वाद भी मिलेगा। और सबसे मजेदार बात – कभी-कभी चुपचाप बैठना ही सबसे बड़ा बदलाव ले आता है!

नियमों का चक्रव्यूह: फाइल नामकरण की महागाथा

हमारे नायक की कंपनी में सालों से एक अनोखा नियम था – हर दस्तावेज़ (डॉक्युमेंट) का नाम एक चार अंकों के कोड से शुरू होना चाहिए, और वो कोड सिर्फ एक खास डिपार्टमेंट ही दे सकता है। अब ये डिपार्टमेंट, जैसे कई मल्टीनेशनल कंपनियों में होता है, विदेश में था और भारत के समय से पूरे नौ घंटे आगे! मतलब, अगर आपको शाम को 4 बजे कोई जरूरी कोड चाहिए, तो सीधे अगले दिन सुबह तक इंतजार कीजिए – क्योंकि वहां के कर्मचारी तो कब के घर जा चुके होते हैं।

शुरुआत में लोग जैसे-तैसे काम चला लेते थे, लेकिन फिर कंपनी ने नया सिस्टम लागू कर दिया – हर टास्क तुरंत लॉग करना जरूरी, वरना सिस्टम उसे अपने-आप अधूरा मानकर बंद कर देता। अब न कोड, न टास्क पूरा, न पेंडिंग का ऑप्शन – बस इंतजार!

'मालिशियस कॉम्प्लायंस' – जब सिस्टम को आईना दिखाया

अब असली ड्रामा शुरू हुआ उस दिन, जब हमारे नायक को शाम 4 बजे एक फाइल तुरंत सबमिट करनी थी। कोड के लिए मेल किया, ऑटो-रिप्लाई आया – "हम अब ऑफलाइन हैं, सुबह मिलेंगे।" वरना लोग जुगाड़ लगा लेते, नाम टेम्पररी डालकर बाद में सुधार लेते, लेकिन दो महीने पहले इसी बात पर उन्हें नोटिस दे दिया गया था।

फिर क्या, साहब चुपचाप बैठकर घड़ी देखते रहे। बीस मिनट बाद बॉस आए, बोले – "काम क्यों नहीं हुआ?" जवाब मिला – "साहब, नियम यही है, रिस्क नहीं ले सकता।" बॉस बोले – "ठीक है, जैसे नियम है, वैसे करो।" अब तो फिर क्या था, नियम का पालन करते हुए टास्क 'ब्लॉक्ड' में डाल दिया। डेडलाइन आई, सिस्टम ने टास्क फेल कर दिया। और चूंकि क्लाइंट बहुत खास था, फेल्योर सीधे मैनेजमेंट तक पहुंच गया।

सुबह होते ही तीन मैनेजरों ने कोड डिपार्टमेंट को घेर लिया – "कल रात जवाब क्यों नहीं दिया?" उधर से स्क्रीनशॉट – "समय देख लीजिए, हमारी शिफ्ट तो खत्म थी!" फिर तो जिम में रस्सी कूदने जैसा ब्लेम-गेम शुरू हो गया – किसकी गलती, कौन जिम्मेदार?

नियम बदले... लेकिन माफी नहीं मिली!

दो दिन बाद नियम चुपचाप बदल गया – "अगर कोड टीम ऑफलाइन है, तो कर्मचारी खुद एक सिंप्लिफाइड टेम्पररी कोड बना सकते हैं।" न कोई माफी, न कोई शुक्रिया, बस नियम बदल गया। लेकिन मजेदार ये कि बदलाव सिर्फ तब हुआ जब बड़ों की कुर्सी हिली, वरना आम कर्मचारी का वक्त बर्बाद होना तो आदत हो चुकी थी।

एक कमेंट में किसी ने बड़ा बढ़िया लिखा – "जब नियम सिर्फ तुम्हारा समय बर्बाद करता है, तब वो पत्थर की लकीर है। लेकिन जब मैनेजमेंट की इज्जत पर बन आती है, तो वही नियम पानी की तरह बह जाता है।" (भला, अपने देश की सरकारी दफ्तरों में भी यही तो होता है, जब तक ऊपर से आदेश न आ जाए, फाइलें धूल ही खाती हैं!)

एक और पाठक ने पूछा, "क्या आपके ऊपर लगे नोटिस को हटाया गया?" जवाब आया – "नहीं, क्योंकि उस वक्त नियम तोड़ा था, अब भले ही नियम बदल गया हो!" इसे पढ़कर लगा, जैसे हिंदी फिल्मों में होता है – 'कानून के हाथ लंबे होते हैं, लेकिन बदलाव की रफ्तार कछुए जैसी!'

बड़े कंपनियों के बड़े झोल – जब सिस्टम ही समस्या बन जाए

कमेंट्स में कई लोगों ने तंज कसा – "इतने बड़े सिस्टम में इतनी छोटी-सी बात के लिए पूरा डिपार्टमेंट!" एक पाठक ने तो यहां तक कह दिया – "इस डिपार्टमेंट का काम तो एक प्रोग्राम भी कर सकता था।" सच कहें, भारत के सरकारी दफ्तरों में भी अकसर ऐसे नियम मिल जाएंगे, जो दशकों पुराने हैं, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं कि अब ज़रूरत भी है या नहीं।

अक्सर ऐसा देखा जाता है कि जब तक कोई बड़ी गड़बड़ न हो, तब तक नियमों पर सवाल नहीं उठता। जैसे हमारे यहां बिजली विभाग का मीटर रीडिंग वाला मामला – जब तक बिल गलत नहीं आता, तब तक कोई शिकायत नहीं करता। लेकिन एक बार मीडिया में खबर चल गई, तुरंत सारा सिस्टम बदल जाता है।

आखिर में – नियम बनाए इंसान ने हैं, न कि इंसान नियमों के लिए!

इस कहानी से एक बड़ी सीख मिलती है – कभी-कभी 'कुछ न करना' ही सबसे बड़ा काम होता है। जब आप चुपचाप नियमों का अक्षरशः पालन करते हैं, तो सिस्टम की खामियां खुद सामने आ जाती हैं। और बदलाव उसी वक्त आता है, जब वो ऊपर बैठे लोगों को भी चुभने लगे।

तो अगली बार जब आपके ऑफिस में कोई अजीब नियम आए, तो थोड़ा सब्र रखिए – क्या पता, आपकी चुप्पी ही सबसे बड़ा क्रांतिकारी कदम बन जाए! और हां, अगर आपको भी ऑफिस की ऐसी कोई मजेदार कहानी याद आए, तो कमेंट में जरूर लिखिए। आखिर, हर दफ्तर की अपनी 'चाय वाली गपशप' होती है!


मूल रेडिट पोस्ट: For years my company had this ultra specific rule about file naming on our internal server.