जब ग्राहक सेवा बन गई 'कियोस्क की सेवा': एक दुकान की हास्यास्पद कहानी

व्यस्त स्टोर कियोस्क का कार्टून-3D चित्र, जहां ग्राहक गलियों में चलते हुए और बैकग्राउंड में सेवा डेस्क है।
यह जीवंत कार्टून-3D चित्र एक बड़े स्टोर की हलचल भरी ऊर्जा को दर्शाता है, जिसमें ग्राहक स्व-सेवा कियोस्क के माध्यम से गलियों में चलते हैं। यह नए दृष्टिकोण के साथ ग्राहक सेवा की चुनौतियों और परिवर्तनों को दर्शाता है।

अगर आपने कभी भारत के किसी बड़े मॉल या सुपरमार्केट में वीकेंड पर खरीदारी की है, तो आप जानते होंगे कि वहाँ का माहौल कैसा होता है—भीड़, बच्चों की शरारतें, लंबी कतारें, और सामान खोजते परेशान ग्राहक। अब सोचिए, इसी माहौल में अगर स्टाफ आपकी मदद करने के बजाय आपको एक मशीन के हवाले कर दे, तो क्या होगा?

आज हम आपको सुनाने जा रहे हैं एक ऐसी ही विदेशी दुकान की कहानी, जिसमें एक ‘बॉस’ ने कर्मचारियों से इंसानियत छोड़कर सिर्फ “कियोस्क” के सहारे काम करने को कहा। आगे जानिए, क्या हुआ जब ग्राहक सेवा बन गई ‘कियोस्क सेवा’—और आखिरकार इंसानियत की जीत कैसे हुई।

कहानी की शुरुआत होती है एक बड़े “बिग बॉक्स” स्टोर से, जो हमारे यहाँ के विशाल हाइपरमार्केट जैसा है—हर दिशा में सामान, हर कोने में गहमा-गहमी, और हर हफ्ते वीकेंड पर अफरा-तफरी। वहां की मैनेजमेंट ने एक नया नियम बनाया: “ग्राहकों को सामान तक ले जाने की जरूरत नहीं, उन्हें बस दरवाजे के पास लगे नए टच स्क्रीन कियोस्क की तरफ भेज दो। वही रास्ता बताएगा।”

पहले तो यह एक अच्छे आइडिया जैसा लगा—भला कौन बार-बार सामान छोड़कर ग्राहकों के पीछे-पीछे जाएगा? लेकिन जैसे ही हकीकत सामने आई, सबकी समझ में आ गया कि स्लाइड शो और असली दुनिया में जमीन-आसमान का फर्क है। कियोस्क के पास हर वक्त भीड़, बच्चों के ठहाके, और टेढ़ी-मेढ़ी ट्रोलियां। ऊपर से कई ग्राहक बुजुर्ग या थके हुए, जिन्हें मोबाइल चलाना भी मुश्किल, अब टच स्क्रीन कैसे समझें!

फिर भी, “नीति” तो नीति है! कर्मचारी ने भी ‘सत्यनिष्ठा’ से नियम का पालन किया। कोई पूछे—“भईया, पिक्चर हुक्स कहाँ मिलेंगे?” जवाब—“कृपया कियोस्क पर जाइए।” कोई कहे—“लाइट बल्ब्स कहाँ रखे हैं?”—“कियोस्क।” कोई पूछ ले—“टॉयलेट कहाँ है?”—“जी, कियोस्क आपको बताएगा।” ग्राहक ऐसे देखते, जैसे मजाक हो रहा हो। मगर कर्मचारी मुस्कान के साथ वही लाइन दोहराए—“स्टोर की नीति है, मैप देख लीजिए।”

एक घंटे में ही कियोस्क के पास ग्राहकों की भीड़ लग गई—कुछ स्क्रीन पर उंगलियाँ चला रहे, कुछ परेशान, कुछ लाइन में खड़े। असली रिटर्न काउंटर पर भी लंबी कतारें लग गईं, क्योंकि कर्मचारी अब ‘हेल्प’ के नाम पर टस से मस नहीं हो रहे थे।

अब, जैसे हमारे यहाँ कोई दादाजी गुस्से में मैनेजर को बुला लेते हैं, वैसे ही वहाँ भी एक ग्राहक ने मैनेजर से शिकायत कर दी। मजेदार बात—मैनेजर खुद आकर ग्राहक को गलियारे तक छोड़ने लगे! वीकेंड खत्म होते-होते तीन शिकायतें दर्ज हो गईं, दो लोग रिटर्न छोड़कर चले गए, और कियोस्क वाला इलाका तो ऐसे लग रहा था जैसे एयरपोर्ट की चेक-इन लाइन हो।

सोमवार को अचानक नीति बदल गई—“जहाँ जरूरी हो, कियोस्क का इस्तेमाल करें, लेकिन इंसानियत भी दिखाएँ!” यानी, “डिस्क्रिशन” का पिटारा खुल गया—जो हम भारतीयों का सबसे प्रिय शब्द है: ‘जैसा उचित समझें, वैसा करें।’

अब इस कहानी पर इंटरनेट की जनता भी खूब हंसी। एक यूज़र ने लिखा, “भैया, अगर हर चीज के लिए कियोस्क भेजेंगे, तो लोग अगली बार दूसरी दुकान चले जाएंगे। आखिर दुकानों का मकसद है सामान बेचना, न कि ग्राहक भगाना!” एक और मजेदार टिप्पणी थी—“रेस्टरूम के लिए भी कियोस्क भेजना तो सीधा विलन वाला काम है!”

कुछ लोगों ने अपने अनुभव भी साझा किए—किसी ने कहा, “हमारे यहाँ तो स्टाफ खुद आकर मदद करता है, और अगर मशीन ने गलत जगह भेज दिया तो खुद गाइड करते हैं।” एक और ने लिखा, “कई बार तो कियोस्क के पास क्रेडिट कार्ड बेचने वाले ऐसे चिपक जाते हैं कि मशीन तक पहुँचना ही मुश्किल हो जाता है, उससे अच्छा है खुद घूमते रहो।”

एक और पहलू भी सामने आया—कई बड़े स्टोर्स (जैसे हमारे देश के डिपार्टमेंटल स्टोर्स या IKEA) में भी डिजिटल मैप्स और ऐप्स का चलन बढ़ रहा है। लेकिन अगर हर चीज मशीन के भरोसे छोड़ दी जाए, तो ग्राहक का अनुभव मशीन जैसा ही हो जाता है—ठंडा, बेरंग और उबाऊ।

सोचिए, अगर हमारे मोहल्ले की किराना दुकान पर दादीजी को दाल का पैकेट चाहिए और मुंशीजी कहें, “दादी, टच स्क्रीन पर देख लो”—तो क्या दादीजी अगले हफ्ते फिर वहीं जाएंगी?

इस कहानी से हमें एक सीधा संदेश मिलता है—तकनीक अच्छी है, पर इंसानियत उससे भी ज्यादा जरूरी। ग्राहक सेवा का मतलब सिर्फ नियम पालन नहीं, बल्कि छोटी-छोटी मददों और मानवीय व्यवहार से दिल जीतना है।

तो अगली बार जब आप किसी दुकान में जाएँ और स्टाफ आपकी मदद करे, तो एक मुस्कान ज़रूर दीजिए। और अगर कोई मशीन के हवाले कर दे, तो याद रखिए—“जहाँ जरूरी हो, इंसानियत भी दिखाइए!”

आपका क्या अनुभव रहा है? क्या कभी किसी दुकान में आपको सिर्फ मशीन के भरोसे छोड़ दिया गया? या किसी स्टाफ ने आपकी उम्मीद से ज्यादा मदद की? अपनी राय नीचे कॉमेंट में ज़रूर बताइए।

और हाँ, इस ब्लॉग को अपने दोस्तों और परिवार के साथ शेयर करना न भूलें—क्योंकि कहानियाँ तो सबको पसंद आती हैं, पर इंसानियत की मिसालें सबसे ज्यादा याद रहती हैं!


मूल रेडिट पोस्ट: 'You have to use the kiosk for that'